‘लोक’ की भाषा और संस्कृति को समर्पित किरदार

https://bolpahadi.blogspot.in/

ब्यालि उरडी आई फ्योंली सब झैड़गेन/किनगोड़ा, छन आज भी हंसणा...।
बर्सु बाद मी घौर गौं, अर मेरि सेयिं कुड़ि बिजीगे...।
जंदरि सि रिटणि रैंद, नाज जन पिसैणि रैंद..।
परदेश जैक मुक न लुका, माटा पाणी को कर्ज चुका..।
इन रचनाओं को रचने वाली शख्सियत है अभिनेता, कवि, लेखक, गजलकार, साहित्यकार मदनमोहन डुकलान। जो अपनी माटी और दूधबोली की पिछले 35 वर्षों से सेवा कर रहे हैं।
10 मार्च 1964 को पौड़ी जनपद के खनेता गांव में श्रीमती कमला देवी और गोविन्द राम जी के घर मदन मोहन डुकलान का जन्म हुआ था। जब ये महज पांच बरस के थे, तो अपने पिताजी के साथ दिल्ली चले गए। इन्होंने 10वीं तक की पढ़ाई दिल्ली में ग्रहण की। जबकि 12वीं देहरादून से और स्नातक गढ़वाल विश्वविद्यालय से। बेहद सरल, मिलनसार स्वभाव और मृदभाषी ब्यक्तित्व है इनका। जो एक बार मुलाकात कर ले जीवनभर नहीं भूल सकता है इन्हें। क्योंकि पहली मुलाकात में ये हर किसी को अपना मुरीद बना देते हैं। यही इनकी पहचान और परिचय है।

बचपन से ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी मदन मोहन डुकलान अपने पिताजी के साथ जब दिल्ली आये, तो उसके बाद उनका अपने गांव और पहाड़ जाना बहुत ही कम हो गया था। इनके पिताजी दिल्ली में आयोजित रामलीला के दौरान मंच का संचालन किया करते थे। वे अक्सर अपने पिताजी के साथ रामलीला में मंचों पर जाते रहते थे। जिस कारण इनका झुकाव अभिनय की तरफ हो गया था।

रामलीला में ही अभिनय का पहला पात्र उनके हिस्से में आया पवनपुत्र हनुमान के वानर सेना के वानर सदस्य के रूप में। जिसको उन्होंने बखूबी निभाया। जिसके बाद से उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा और आज अभिनय में उनका कोई सानी नहीं। डुकलान जब दिल्ली में 10वीं की पढाई कर रहे थे तो कविताओं के प्रति उनके रुझान को देखते हुए उनकी अध्यापिका ने उन्हें कविता लिखने को प्रोत्साहित किया। जिसके बाद उन्होंने कई हिंदी कविताएं लिखी। दिल्ली से शुरू हुआ उनके कविता लिखने का सफर आज भी बदस्तूर जारी है।

जब वे बीएससी द्वितीय वर्ष में अध्यनरत थे तो तभी महज 19 बरस की आयु में उनका चयन ओएनजीसी में हो गया था। ओएनजीसी में नौकरी के दौरान उन्हें बहुत सारे मित्र मिले, जो रंगमंच के हितैषी थे और कई लोगों ने उन्हें प्रोत्साहित भी किया। जो आज भी उनके साथ रंगमंच में बड़ी शिद्दत से जुटे हुए हैं।

उनकी अपनी बोली भाषा के प्रति प्रेम और समर्पण को देखकर नहीं लगता की उनका बचपन अपनी माटी से बहुत दूर गुजरा हो। लेकिन यही हकीकत है कि उन्होंने माटी से दूर रहने के बाद भी अपनी माटी को नहीं बिसराया। वो हिंदी में बहुत अच्छा लिखते थे। 80 के दशक में मध्य हिमालय के देहरादून, पौड़ी, श्रीनगर, सतपुली, कोटद्वार, हरिद्वार, रामनगर जैसे छोटे बडे़ नगरों में धाद के संस्थापक लोकेश नवानी गढ़वाली बोली भाषा के संरक्षण, संवर्धन के लिए प्रयासरत थे। इसी दौरान इनकी मुलाकात लोकेश नवानी जी के साथ हुई। जो इनके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी। जिसने इनके जीवन की दिशा बदल कर रख दी।

लोकेश नवानी जी ने मदन मोहन डुकलान को गढ़वाली भाषा के साहित्य के बारे में विस्तार से बताया और उन्हें गढ़वाली में लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। जिसके बाद से डुकलान अपनी दुधबोली भाषा के संरक्षण और संवर्धन में लगे हुए हैं। वे विगत 35 बरसों से अभिनय से लेकर काव्य संग्रहों और कवि सम्मेलनों के जरिये अपनी दुधबोली भाषा और साहित्य को नई ऊंचाइया देते आ रहे हैं।

उन्होंने अपनी दुधबोली भाषा के लिए हिंदी का मोह त्याग दिया, नहीं तो हिंदी कवियों में आज वे अग्रिम कतार में खड़े रहते। इसके अलावा गढ़वाली में गजल विधा का प्रयोग करने वाले वे शुरूआती दौर के रचनाकारों में थे। जो कि गढ़वाली साहित्य में अपने तरह का अलग प्रयास था। इस विधा को गढ़वाली साहित्य में स्थान दिलाने में उनका अहम् योगदान रहा है। पौड़ी से लेकर देहरादून और दिल्ली में आयोजित होने वाले गढ़वाली कवि सम्मेलनों में आपको मदन मोहन डुकलान की उपस्थिति जरूर दिखाई देती है।
बकौल डुकलान बोली भाषा के संरक्षण, संवर्धन के लिए सम्मिलित प्रयासों की नितांत आवश्यकता है। बच्चों को अपनी बोली भाषा में लेखन, संगीत, नाटकों से जोड़ा जाना चाहिए। यही हमारी पहचान है। युवाओं को खुद भी इस दिशा में आगे आना चाहिए।

वास्तव में देखा जाय तो मदन मोहन डुकलान का गढ़वाली साहित्य के संरक्षण और संवर्धन में अमूल्य योगदान रहा है। वह विगत 35 बरसों से न केवल बोली भाषा के मजबूत स्तभ बने हुए हैं, अपितु सांस्कृतिक व साहित्यिक गतिविधियों से लेकर रंगमंच तक निरंतर सक्रिय भूमिका निभा रहें हैं। गढ़वाली साहित्य के प्रचार प्रसार में भी उनका योगदान अहम रहा है।

उत्तराखंड में लोकभाषा, संस्कृति, समाज की निस्वार्थ सेवा करने वाले बहुत ही कम लोग हैं। ऐसे में मदन मोहन डुकलान और अन्य साहित्यकारों के कार्यों को लोगों तक नहीं पहुंचा सके तो नई पीढ़ी कैसे इनके बारे में जान पाएगी।

इनके खाते में दर्ज सृजन के कई दस्तावेज
अगर मदन मोहन डुकलान के सृजन संसार पर एक सरसरी निगाहें डाले तो साफ पता चलता है कि अपनी बोली भाषा के लिए उनका योगदान अतुलनीय है। उन्होंने जहां पहला गढ़वाली कविता पोस्टर बनाया, तो वहीं अपनी दुधबोली भाषा के प्रति असीम प्रेमभाव दिखाते हुए अपने संसाधनों से गढ़वाली त्रैमासिक पत्रिका चिट्ठी-पत्रिका निरंतर प्रकाशन किया। इस पत्रिका के जरिये उन्होंने कई लोगों को एक मंच भी प्रदान किया। जबकि ये पत्रिका विशुद्ध रूप से अव्यवसायिक है। उन्होंने ग्वथनी गौं बटे’ (18 कवियों को कविता संग्रह), ‘अंग्वाल’ (वृहद् गढ़वाली कविता संकलन), ‘हुंगरा’ (100 गढ़वाली कथाओं का संग्रह) का संपादन किया। वहीं आंदि-जांदि सांस (गढ़वाली कविता संग्रह), अपणो ऐना अपणी अन्वार (गढ़वाली कविता संग्रह), चेहरों के घेरे (हिंदी कविता संग्रह), इन दिनों (हिंदी कवियों का सह-संकलन), प्रयास (हिंदी कवियों का सह-संकलन) जैसी ख्याति प्राप्त पुस्तकें लिखीं। जो उनकी प्रतिभा को चरितार्थ करती हैं।

इन सम्मानों ने बढ़ाया मदन मोहन का मान
उन्हें रंगमंच से लेकर अपनी बोली भाषा और साहित्य की सेवा के लिए कई सम्मानों से भी सम्मानित किया जा चूका है। जिसमें उत्तराखंड संस्कृति सम्मान, दूनश्री सम्मान, डॉ. गोविन्द चातक सम्मान (उत्तराखंड भाषा संस्थान), उत्तराखंड शोध संस्थान सम्मान, सर्वश्रेठ अभिनेता (नाटक- प्यादा), गोकुल आर्ट्स नाट्य प्रतियोगिता, वाराणसी, सर्वश्रेठ अभिनेता (फिल्मः याद आली टिरी) - यंग उत्तराखंड सिने अवार्ड, सर्वश्रेठ अभिनय- नेगेटिव रोल (फिल्मः अब त खुलली रात) - यंग उत्तराखंड सिने अवार्ड, यूथ आइकॉन अवार्ड के बाद कुछ दिन पहले गढ़वाली भाषा के लिए देश की राजधानी दिल्ली में कन्हैयालाल डंडरियाल साहित्य सम्मान 2017 भी शामिल है।

आलेख- संजय चौहान, युवा पत्रकार।

यह भी पढ़ें - लोक स्वीकृत रचना बनती है लोकगीत

Popular posts from this blog

गढ़वाल में क्या है ब्राह्मण जातियों का इतिहास- (भाग 1)

गढ़वाल की राजपूत जातियों का इतिहास (भाग-1)

गढ़वाली भाषा की वृहद शब्द संपदा