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Showing posts from October, 2017

शिकायतें तब भी थीं, अब भी हैं

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  उत्तराखंड अलग राज्य बनने से पहले यूपी सरकार को लेकर जितनी शिकायतें ‘ पर्वतजन ’ के मानस पर अंकित थीं , उससे कहीं अधिक शिकायतें हल होने के इंतजार में अपनी ही सरकारों का मुहं तक रही हैं। कारण , 17 वर्षों में निस्तारण की बजाए उनकी संख्या ज्यादा बढ़ी है। जिसकी तस्दीक सरकारी आंकड़े करते हैं। यानि कि राज्य निर्माण की उम्मीदें अब तक के अंतराल में टूटी ही हैं। आलम यह रहा कि 17 सालों में पलायन की रफ्तार दोगुनी तेजी से बढ़ी। अब तक करीब 30 हजार से अधिक गांव वीरान हो गए हैं। कई तो मानवविहीन बताए जा रहे हैं। ढाई लाख घरों में ताले लटक चुके हैं। पर्वतीय क्षेत्रों से करीब इस वक्फे में जहां 14 फीसदी आबादी कम हुई , तो राज्य के मैदानी इलाकों में यह छह प्रतिशत से अधिक बढ़ी। नतीजा , पहाड़ को जनप्रतिनिधित्व के तौर पर छह सीटें गंवानी पड़ी हैं , जिसमें 2026 में लगभग 10 सीटें और कम होने का अनुमान है। हाल के चुनाव आयोग के आंकड़ों को समझें , तो हरदिन 250 लोग पहाड़ों से पलायन कर रहे हैं। अक्टूबर 2016 से सितंबर 2017 तक राज्य में 1,57,672 नाम वोटर लिस्ट से कटे और 11,704 डुप्लीकेट मिले। वहीं , 9,822 नामों को शिफ

सिर्फ आलोचना करके तो नहीं जीत सकते

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उत्तराखंड क्रांति दल खुद को अपनी ‘ आंदोलनकारी संगठन ’ की छवि से मुक्त कर एक जिम्मेदार और परिपक्व राजनीतिक पार्टी के रूप में स्थापित करना चाहता है। इसके पीछे निश्चित ही उसके तर्क हैं। जिन्हें अनसुना तो कम से कम नहीं किया जा सकता है। मगर , अतीत में आंदोलनकारी संगठन और फिर सियासी असफलताओं के आलोक में उसके लिए मनोवांछित ‘ कायाकल्प ’ आसान होगा ? यूकेडी जिस फार्मेट में अब सामने आना चाहती है , उसका यह नया अवतार जनमन को स्वीकार्य होगा ? राज्य के मौजूदा सियासी परिदृश्य में कोई स्पेस बाकी है ? खासकर तब जब 17 बरसों में कांग्रेस और भाजपा ने जनता के बीच खुद को लगभग एक-दूसरे का पूरक मनवा लिया हो। पृथक उत्तराखंड की लड़ाई में उक्रांद के संघर्ष को कौन भला नकार सकता है। 1994 के राज्य आंदोलन का अगवा भी लगभग वही रहा। परिणाम निकला और नौ नवंबर सन् 2000 में आखिरकार अलग राज्य की नींव पड़ी। तब नेशनल मीडिया तक ने उत्तराखंड में यूकेडी को तीसरी ताकत के तौर पर विशेष तौर से पेश किया। अलग राज्य में सन् 2002 के पहले विधानसभा चुनाव में दल को जनता ने चार सीटें दीं। किंतु , वह अगले पांच साल में खुद को एक राजनीतिक

जहां बिखरी है कुदरत की बेपनाह खूबसूरती

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उत्तराखंड के हिमालय में कई छोटे-बड़े बुग्याल मौजूद हैं। औली , गोरसों बुग्याल , बेदनी बुग्याल , दयारा बुग्याल , पंवालीकांठा , चोपता , दुगलबिट्टा सहित कई बुग्याल हैं , जो बरबस ही सैलानियों को अपनी और आकर्षित करते हैं। लेकिन इन सबसे अलग बेपनाह हुस्न और अभिभूत कर देने वाला सौंदर्य को समेटे सीमांत जनपद चमोली के देवाल ब्लाक में स्थित आली बुग्याल आज भी अपनी पहचान को छटपटाता नजर आ रहा है। प्रकृति ने आली पर अपना सब कुछ लुटाया है , लेकिन नीति नियंताओं की उदासीनता के कारण आज आली हाशिए पर चला गया है। जान लें कि पहाड़ों में जहां पेड़ समाप्त होने लगतें हैं यानि की टिंबर रेखा , वहां से हरे भरे मखमली घास के मैदान शुरू हो जाते हैं। आपको यहीं पर स्नो और ट्री लाइन का मिलन भी दिखाई देगा। उत्तराखंड में घास के इन मैदानों को बुग्याल कहा जाता है। ये बुग्याल बरसों से स्थानीय लोगों के लिए चारागाह के रूप में उपयोग में आतें हैं। जिनकी घास बेहद पौष्टिक होती हैं। इन मखमली घासों में जब बर्फ की सफेद चादर बिछती है , तो ये किसी जन्नत से कम नजर नहीं आते हैं। इन बुग्यालों में आपको नाना प्रकार के फूल और वनस्पति लकद

ओ साओ ! तुम कैक छा ?

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पहाड़ के रसूल हमताजोव हैं शेरदा अनपढ़ तुम सुख में लोटी रया , हम दुःख में पोती रयां ! तुम स्वर्ग , हम नरक , धरती में , धरती आसमानौ फरक ! तुमरि थाइन सुनुक र्वट , हमरि थाइन ट्वाटे- ट्वट ! तुम ढडूवे चार खुश , हम जिबाई भितेर मुस ! तुम तड़क भड़क में , हम बीच सड़क में ! तुमार गाउन घ्युंकि तौहाड़ , हमार गाउन आसुंकि तौहाड़ ! तुम बेमानिक र्वट खानया , हम इमानांक ज्वात खानयां ! तुम पेट फूलूंण में लागा , हम पेट लुकुंण में लागां ! तुम समाजाक इज्जतदार , हम समाजाक भेड़-गंवार ! तुम मरी लै ज्युने भया , हम ज्युने लै मरिये रयां ! तुम मुलुक कें मारण में छा , हम मुलुक पर मरण में छां ! तुमुल मौक पा सुनुक महल बणैं दीं , हमुल मौक पा गरधन चङै दीं ! लोग कुनी एक्कै मैक च्याल छां , तुम और हम , अरे ! हम भारत मैक छा , ओ साओ ! तुम कैक छा ? कवि-  शेरदा अनपढ़

दाज्यू मैं गांव का ठैरा

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अनिल कार्की//  पहाड़ में रहता हूं गांव का ठैरा दाज्यू में तो पीपल की छांव सा ठैरा ओल्ले घर में हाथ बना है पल्ले घर नेकर और डंडा  मल्ले घर में हाथी आया तल्ले घर कुर्सी का झण्डा पहाड़ में रहता हूं गांव का ठैरा दाज्यू में तो पीपल की छांव सा ठैरा प्रशासन दावत पर अटका मतदाता रावत पर अटका छप्पन लेकर सुस्त पड़े हैं  कौन लगाए बिजली झटका पहाड़ में रहता हूं गांव का ठैरा दाज्यू में तो पीपल की छांव सा ठैरा अंग्रेजी गानों में करते पधान जी भी हिप हॉप जीलाधीस कुर्सी में बैठे चूस रहे हैं लालीपॉप पहाड़ में रहता हूं गांव का ठैरा दाज्यू में तो पीपल की छांव सा ठैरा शराब माफिया चंवर ढुलाए खनन माफिया आरत गाए दिल्ली से दिल लगी राज की जनता से ताली पिटवाए पहाड़ में रहता हूं गांव का ठैरा दाज्यू में तो पीपल की छांव सा ठैरा चीनी कटक हुआ सब महंगा महंगी हो गई गेहूं रोटी गाडी से हूटर हटवाकर   नोच रहे चुपके से बोटी पहाड़ में रहता हूं गांव का ठैरा दाज्यू में तो पीपल की छांव सा ठैरा टूरिस्टों की टयामटुम ठेकदार की रेलमपेल बकरी सा

ग़ज़ल

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दुष्यंत कुमार // तुम्हारे पांव के नीचे कोई जमीन नहीं , कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं ।। मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं , मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं ।। तेरी जुबान है झूठी जम्हूरियत की तरह , तू एक जलील-सी गाली से बेहतरीन नहीं ।। तुम्हीं से प्यार जतायें तुम्हीं को खा जाएं , अदीब यों तो सियासी हैं पर कमीन नहीं ।। तुझे कसम है खुदी को बहुत हलाक न कर , तु इस मशीन का पुर्जा है तू मशीन नहीं ।। बहुत मशहूर है आएं जरूर आप यहां , ये मुल्क देखने लायक तो है हसीन नहीं ।। जरा-सा तौर-तरीकों में हेर-फेर करो , तुम्हारे हाथ में कालर हो , आस्तीन नहीं ।। कवि-  दुष्यंत कुमार साभार

मेरो हिमालय

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म्यारा ऊंचा हिमालय तै शांत रैण द्या नि पौंछावा सड़की पुंगड़ी - कूड़ी नि दब्यौण द्या , म्यारा ऊंचा हिमालय तै शांत रैण द्या । नि बांधा बगदि गंगा तैं यूं पंडों का गौं अठूर- टीरी पाणी मा नि समौंण द्या  म्यारा ऊंचा हिमालय तै शांत रैण द्या । नि चैंदी तुम्हारी राजधानी गैरसैंण मा हम चमोली का ढेबरा पौड़ी का सलाणी खासपट्टी का खस्या बंगाण का बंगाणी जोशीमठ का भोट्या मार्छा पिथौरागढ़ का तोलछा गंगाड़ का गंगाड़ी जौनसार का जौनसारी जौनपुर का जौनपुरी कुमौं का कुंमय्यां , गढ़वाल का गढ़वाळी    हम तै हमीं रैंण द्या ।। रचनाकार- जय प्रकाश पंवार

कलह से धीमी हुई डबल इंजन की रफ्तार

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हाल में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने उत्तराखंड दौरे पर भले ही सरकार के छह महीने के कार्यकाल को 100 नंबर दिए हों , मगर उन्होंने अपने दौरे में सरकार के अधिक ‘ संगठन ’ को तरजीह दी। शायद इसलिए भी कि कुछ समय से सरकार और संगठन के बीच का तालमेल पटरी पर नहीं है। यह भी कह सकते हैं कि किसी दल के लिए सियासत में प्रचंड बहुमत ही पर्याप्त नहीं होता है , निरंतरता और प्रगति के लिए संगठनात्मक ताकत का उत्तरोत्तर बढ़ना भी जरूरी है।  दरारों और खाइयों के बीच ताकत को सहेजे रखना आसान नहीं होता। इस दौरे में शाह का विधायक और मंत्रियों से लेकर अनुषंगियों तक जरूरत के हिसाब से पेंच कसना , स्पष्ट करता है कि अंदरुनी घमासान कुछ जोर पर है। यहां कौन किस से नाराज है , कोई कहे , जरा हाल की कुछ घटनाओं पर भी नजर डाल लें। राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा बुलाई गई क्लास में जब पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ सांसद बीसी खंडूड़ी हाजिर हुए , तो कुर्सियां खाली नहीं थीं और किसी ने उनके लिए कुर्सी खाली करने की औपचारिकता भी नहीं निभाई। नतीजा उन्हें कुछ देर जगह तलाश में खड़ा ही रहना पड़ा। तब टिहरी सांसद मालाराज्य लक्ष्मी शाह ने