गुलज़ार साहब की कविता "गढ़वाली" में
लोग सै ब्वळदिन, ब्यठुला हैंकि बानि का उलखणि सि हुंदिन । सर्या राति फस्सोरिक नि सिंदिन, कभि घुर्यट त कबरि कणट कनि रंदिन, अद्निंदळ्यामा भि कामकाजा कु स्या पट्टा लेखिक, लाल पिंग्ळि पिठै लगैकि, दिनमनि मा ब्यौ बरि उर्याणि रंदिन पुर्याणि रंदिन । द्वार मोर का च्यौला, चटगण, गोलण, संगुळि, ननातिनों का तींदा कयां सलदरास, गत्यूड़ अर गद्यलि, अर छ्वारों कु बब्बा कु कळग्यसरु मन, जपकाणि रैंद, द्यखणि रैंद, मलसणि रैंद, अर सुबेर तक उणिंदि रैंद । तबि त निंदि म वा, भजणि रैंद, भजणि रैंद, भजणि रैंद । निंद भूख हर्चैकि भि किळै तणतणि सि हुंदिन । सचै, ब्यठुला भि बक्कि बाता का उलखणि सि हुंदिन ॥ बथौं सि चक्करापति ख्यलणि रैंद । उबरि चुलू फर, उबरि गुठ्यारम, त उबरि सग्वड़म, उबरि स्यारम । छन्छ्या का भदलुंद, बक्ळा गीत थड़काणि रैंद । अर लड़बड़ि छुयूं का दगड़ा दगड़ि, हारु लूण रळाणि रैंद ॥ कभि चम्म खड़ि ह्वै जांद, रोज दिनमान दगड़ झमडा-झमड खड़ाखड़ि ह्वै जांद । चौका खळ्याणम तुड़ाबुड़ि ह्वै जांद । अफु थैं अफु से प्वारम छटकैकि, जिकुड़ियूं का नजीक चिनगरि सि, सुलगणि सि रंदिन ।