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Showing posts from August, 2016

काफल पाको ! मिन नि चाखो

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' काफल '  एक लोककथा   उत्‍तराखंड  के एक गांव में एक विधवा औरत और उसकी  6-7  साल की बेटी रहते थे। गरीबी में किसी तरह दोनों अपना गुजर बसर करते। एक दिन माँ सुबह सवेरे जंगल में घास के लिए गई, और घास के साथ 'काफल' (पहाड़ का एक बेहद प्रचलित और स्‍वादिष्‍ट फल) भी साथ में तोड़ के लाई। जब बेटी ने काफल देखे तो वह बड़ी खुश हुई। माँ ने कहा- मैं खेत में काम करने जा रही हूँ। दिन में जब लौटूंगी तब दोनों मिलकर काफल खाएंगे। और माँ ने काफलों को टोकरी में रखकर कपड़े से ढक दिया। बेटी दिन भर काफल खाने का इंतज़ार करती रही। बार बार टोकरी के ऊपर रखे कपड़े को उठाकर देखती और काफल के खट्टे-मीठे रसीले स्वाद की कल्पना करती। लेकिन उस आज्ञाकारी बिटिया ने एक भी काफल नहीं खाया। सोचा जब माँ आएगी तब खाएंगे। आखिरकार शाम को माँ लौटी, तो बच्ची दौड़ के माँ के पास गई और बोली- माँ.. माँ.. अब काफल खाएं ? माँ बोली- थोडा साँस तो लेने दे छोरी..। फिर माँ ने काफल की टोकरी निकाली।  उसका कपड़ा उठाकर देखा.. अरे ! ये क्या  ?  काफल कम कैसे हुए  ?  तूने खाये क्या  ? नहीं माँ ,  मैंने तो एक भी नहीं चखा..।

सामयिक गीतों से दिलों में बसे 'नेगी'

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        अप्रतिम लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी  के उत्तराखंड से लेकर देश दुनिया में चमकने के कई कारक माने जाते हैं. नेगी को गढ़वाली गीत संगीत के क्षितिज में लोकगायक जीत सिंह नेगी का पार्श्व में जाने का भी बड़ा लाभ मिला. वहीं ,  मुंबई ,  दिल्‍ली जैसे महानगरों में सांस्‍कृतिक कार्यक्रमों में सक्रियता ,  सुरों की साधना ,  संगीत की समुचित शिक्षा ,  गीतों में लोकतत्‍व की प्रधानता जैसी कई बातों ने नरेंद्र सिंह नेगी को लोगों के दिलों में बसाया. अपनी गायकी में संगीत के नियमों का पूरा अनुपालन का ही कारण है ,  कि उनके गीतों की धुनें न सिर्फ कर्णप्रिय रही ,  बल्कि वह अपने वैशिष्‍टय से भी भरपूर रहे हैं. जब नरेंद्र सिंह नेगी आचंलिक संगीत के धरातल पर कदम रख ही रहे थे ,  तो सी दौर में टेप रिकॉर्डर के साथ ऑडियो कैसेट इंडस्‍ट्री में भी क्रान्ति शुरू हुई. जिसकी बदौलत जहां तहां बिखरे पर्वतजनों को अपने लोक के संगीत की आसान उपलब्‍धता सुनिश्चित हुई. उन्‍हें नरेंद्र सिंह नेगी सरीखे गायकों   के गीतों को सुनने के अवसर मिल गये. ऑडियो कैसेट इंडस्‍ट्री के विकास से आंचलिक गायकों के बीच प्रतिस्‍पर्धा भी बढ़ी. ज

सिल्‍वर स्‍क्रीन पर उभरीं अवैध खनन की परतें

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फिल्म समीक्षा गढ़वाली फीचर फिल्म उत्तराखंड में ‘ अवैध खनन ’ सिर्फ राजनीतिक मुद्दा भर नहीं है। बल्कि , यह पहाड़ों , नदियों , गाड-गदेरों की नैसर्गिक संरचना और परिस्थितिकीय तंत्र में बदलाव की चिंताओं का विषय भी है। लिहाजा , ऐसे मुद्दे को व्यापक रिसर्च के बिना ही रूपहले फिल्मी परदे पर उतारना आसान नहीं। हालिया रिलीज गढ़वाली फीचर फिल्म ‘ भुली ऐ भुली ’ के साथ ही यही हुआ है। बहन के प्रति भाई का भावुक प्रेम और नेता-माफियातंत्र में जकड़ा अवैध खनन फिल्म की कहानी के दो छोर हैं। रियल ग्राउंड पर स्वामी निगमानंद , स्वामी शिवानंद और मलेथा की महिलाओं के आंदोलन के बतर्ज नायक ‘ इंस्पेक्टर सूरज ’ माफिया से अपने हिस्से की जंग लड़ता है , और जीतता भी है। मगर , तब भी फिल्म ‘ खनन ’ का दंश झेलते इस राज्य के सच को ‘ फौरी चर्चा ’ से आगे नहीं बढ़ा पाती है। वैष्णवी मोशन पिक्चर्स के बैनर पर बतौर निर्माता ज्योति एन खन्ना की पहली आंचलिक फिल्म ‘ भुली ऐ भुली ’ में खनन के विस्फोट में मां-बाप को खोने के बाद सौतेली बहन चंदा (प्रियंका रावत) की जिम्मेदारी सूरज (बलदेव राणा) के कंधों पर आ जाती है। जिससे वह अगाध प्र