पुष्‍कर की 'मशकबीन' पर 'लोक' की धुन

चेहरे पर हल्की सफ़ेद दाढ़ी... पहाड़ी व्‍यक्तित्व और शान को चरितार्थ करती हुई सुंदर सी मूछें... सिर पर गौरवान्वित महसूस कर देने वाली पहाड़ी टोपी... साधारण पहनावा और वेषभूषा... ये पहचान है, विगत 45 बरसों से मशकबीन के जरिये लोकसंस्कृति को संजोते, सहेजते पुष्कर लाल की। जो अकेले ही शादी ब्याह से लेकर, मेले, कौथिगों और धार्मिक अनुष्ठानों में अपनी ऊँगलियों के हुनर के जरिये पहाड़ की लोकसंस्कृति की विरासत को बचाए हुये हैं।

उत्‍तराखंड के जनपद चमोली की प्रसिद्ध निजमुला- गौना ताल की घाटी में बसा एक खुबसूरत गांव है गाड़ी। गाड़ी गांव ही पुष्कर लाल का पैतृक गांव है। उम्र के 64 वें पड़ाव पर पहुँच चुके पुष्कर आज भी बड़ी शिद्दत से अपनी विरासत के संरक्षक बने हुए हैं। बचपन में ये अपने दादा जी के साथ हिमालयी बुग्यालों में बकरियों को चुगाने जाया करते थे। जहां इन्हें अपने दादा जी से बासुंरी की धुन सिखने को मिली। वह धुन इन्हें इतनी भायी, कि वो उनकी जिंदगी का हिस्‍सा ही बन गई।
अक्सर बुग्यालों में एक जगह पर ही रहकर वह बासुंरी की धुन के जरिए बकरियों को इधर से उधर ले आते थे। 19 साल की उम्र में इन्होंने एक मशकबीन ख़रीदी और तब से जो सिलसिला शुरू हुआ, आज भी वो बदस्तूर जारी है। दो बेटे और तीन बेटियों के पिता पुष्कर लाल कहते हैं, कि जो सुकून और आनंद पहाड़ की लोकसंस्कृति में आता है वो अन्यत्र नहीं। लेकिन न तो नीति नियंताओ ने और न हाकिमों ने कभी उनकी सुध ली। बड़ी पीड़ा होती है कि नौजवान पीढ़ी अपनी जड़ों से दूर होते जा रहें हैं। अगर ऐसा ही हाल रहा तो आने वाले समय में आपको मशकबीन पहाड़ी संस्‍कृति के सरोकारों की बजाए केवल किताबों में ही दिखाई देगी।
सरकारें लोकसंस्कृति और परम्परागत बाध्‍ययंत्रों के संरक्षण और संवर्धन को लेकर हवा हवाई बाते करती रही हैं, हकीकत यह है कि लोकसंस्कृति और उसकी विरासत को किसी तरह से बचा रहे लोग आज बड़ी मुफलिसी में गुजर बसर कर रहें हैं। बकौल पुष्‍कर- वो तो हम लोग अन्य स्रोतों के जरिये अपने परिवार का भरण पोषण करतें हैं। अन्यथा मशकबीन के जरिये परिवार के लिए तो केवल और केवल दो दिन के ही भोजन का बंदोबस्त हो पाता है। ऐसे में कोई कैसे इस ओर दिलचस्‍पी ले।
लम्बी देर तक पुष्कर लाल के साथ गुफ्तगू करने के बाद उनके चेहरे पर पड़ी झुरियां उनके दर्द को साफ़ परीलक्षित करती हैं। आगे कहतें हैं कि जब तक शरीर साथ दे रहा है, तब तक इस धरोहर को बचाने की कोशिश करूँगा, और जब शरीर ही साथ नहीं देगा तो फिर आप खुद ही समझ सकते हैं....।
पुष्‍कर मशकबीन के बारे कहते हैं कि हमारी संस्कृति में इससे बेहतरीन बाध्‍ययंत्र और कोई नहीं। इसकी धुन से ही पूरा वातावरण अपनी अनुपम छटा बिखेरता है। वे अब तक देहरादून, रानीखेत, हल्द्वानी, श्रीनगर, पौड़ी, टिहरी, उत्तरकाशी सहित कई स्थानों में मशकबीन के जरिये लोगो को मंत्रमुग्ध कर चुकें हैं। 64 साल की उम्र में भी उनका लोकसंस्कृति के लिए मशकबीन बजाना अद्भुत, जबरदस्त और अकल्पनीय है।

प्रस्‍तुति- संजय चौहान, चमोली गढ़वाल, उत्‍तराखंड 

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