गिरगिट, अपराधबोध और कानकट्टा

आज सुबह से ही बड़ा दु:खी रहा। कहीं जाहिर नहीं किया, लेकिन वह बात बार-बार मुझे उलझाती रही, कि क्‍या मुझसे गुनाह, पाप हुआ है। साथ ही मन को खुद ढांढ़स भी बंधा रहा था कि नहीं, पाप नहीं हुआ। अंजाने में कोई बात हो जाए तो व्‍यवहारिक तौर पर उसे गुनाह नहीं माना जाता है। कानूनी तौर पर जरुर इसे गैर इरादतन अपराध की श्रेणी में रखा जाता है। सो पसोपेस अब भी बाकी है।
हुआ यह कि सुबह जब ड्यूटी जा रहा था, तो अपने घर के बाहर अचानक और अंजाने ही एक गिरगिट पैरों के तले रौंदा गया। उस पर पैर पड़ते ही क्रीच..क की आवाज से चौंक कर उछला, पीछे मुड़कर देखा तो गिरगिट परलोक सिधार चुका था। पहले क्रीच.. की आवाज पर मैंने समझा की कोई सूखी लकड़ी का दुकड़ा पैर के नीचे आया है। खैर ड्यूटी की देर हो रही थी, और गिरगिट मर चुका था। इसलिए आगे निकल पड़ा। लेकिन एक अंजाना अपराधबोध जो मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा था।
अब तक जब लिख रहा हूं, तब भी मुझे डरा रहा है कि अंजाने ही सही गुनाह तो हुआ है। देखकर चलना चाहिए था। वह भी जमीन को देखकर, आसमान को नहीं। रह-रह कर पुराने लोगों के बोल भी याद आ रहे थे। जिनमें कहा जाता था कि यदि कभी कोई छिपकली अपने हाथों मर जाए तो कानकट्टा होता है, यानि, कान का निचला हिस्‍सा अपने आप सड़ने लगता है। सच क्‍या है, नहीं मालूम। लेकिन यह बात छिपकली के संदर्भ में कही जाती रही हैं। गिरगिट के बारे क्‍या चलन है, यह जानना बाकी है।
तो, तीसरी तरफ मन सोच रहा था, कि मरने वाला तो जीव प्रजाति का ही गिरगिट था। अब जब अपने इर्दगिर्द जमानों से गिरगिटों को देखता, उनके बारे सुनता आया हूं। और वह कभी किसी के पैरों तले नहीं रौंदे गए, बल्कि वही औरों को पैरों तले रौंदते रहे, तो इसे किसी तरह के अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। क्‍या इससे भी कानकट्टा होता है।
सो, पता हो तो दोनों ही श्रेणियों के लिए जो अंजाम आप जानते हों, अवगत कराएं। क्‍योंकि मैं अभी भी कानकट्टे के डर में ही जी रहा हूं.. ।

धनेश कोठारी

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