बसंत


लो फिर आ गया बसंत
अपनी मुखड़ी में मौल्‍यार लेकर
चाहता था मैं भी
अन्‍वार बदले मेरी

मेरे ढहते पाखों में
जम जाएं कुछ पेड़
पलायन पर कस दे
अपनी जड़ों की अंग्‍वाळ

बुढ़ी झूर्रियों से छंट जाए उदासी
दूर धार तक कहीं न दिखे
बादल फटने के बाद का मंजर

मगर
बसंत को मेरी आशाओं से क्‍या
उसे तो आना है
कुछ प्रेमियों की खातिर
दो- चार फूल देकर
सराहना पाने के लिए

इसलिए मत आओ बसंत
मैं तो उदास हूं

धनेश कोठारी
कापीराइट सुरक्षित @2013

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