लोकल 'पप्पू' भी सांसत में
वर्षों से कोई 'पप्पू' पुकारता रहा , तो बुरा नहीं लगा। मगर अब उन्हीं लोगों को 'पप्पू' का अखरना , समझ नहीं आ रहा। भई क्या हुआ कि 'पप्पू' अभी तक फेल हो रहा है। यह कुंभ का मेला तो है नहीं कि बारह साल में एक बार आएगा। हर साल कहीं न कहीं यह परीक्षा (विधानसभा , पंचायत , निकाय चुनाव) तो होगी ही , तब राष्ट्रीय न सही लोकल 'पप्पू' तो पास हो जाएगा। रही बात हाल में 'पप्पू' के पास न होने की , तो इससे मैं भी आहत हूं। एक राष्ट्रीय पप्पू ने लोकल पप्पूओं की वाट जो लगा दी है। अब देखो , सब हर फील्ड में पप्पू होने का मतलब नाकामी से जोड़ रहे हैं। ऑक्सफोर्ड वाले भी सोच रहे हैं कि 'पप्पू' को फेल का पर्यायवाची बना दिया जाए। देश में अब मां-दे लाडलों को भी दुत्कार में 'पप्पू' नहीं कहा जा रहा। मांएं भी जाने क्यूं इस नाम से खौफजदा हैं। शायद उन्हें भी लग रहा है , कि कहीं प्यार-दुलार के चक्कर में बेटे की नियति भी 'पप्पू' न हो जाए। 'बाजार' हर साल कैडबरी बेचते हुए इसी उम्मीद में जीता है , आस लगाए रहता है कि 'पप्पू' पास होगा