आखिर चटखारेदार खबरों से लाभ किसे


उत्‍तराखंड त्रासदी के बाद केदारनाथ पूरी तरह से तबाह हुआ, जहां अगले कई वर्षों तक हालात शायद ही सुधरे। वहीं, जलप्रलय ने चारधाम यात्रा के तमाम रास्तों  को भी क्षत विक्षत कर पहाड़ की रोजी रोटी को बरबाद कर डाला। यहां भी सरकारी नाकामियों के कारण कब तक हालात सामान्य  हो सकेंगे कहना मुश्किल है। लेकिन और बात जो पहाड़ के हितों को चोट पर चोट कर रही है, वह मीडिया की अनर्गल रिपोर्टें। जिसकी बदौलत देशभर से लोग पहाड़ का रुख करने से भी हिचक रहे हैं।

बुधवार 21 अगस्त को पहाड़ के अखबारों ने एक और 'छदम भय' फैलाने की कोशिश की है। जिसमें लिखा गया है कि बदरीनाथ मंदिर भी अब खतरे की जद में है। जिन तथ्यों को रिपोर्टों में दर्शाया गया है, उन्हेंर देश और प्रदेशभर के लोग तो शायद मान भी लें, मगर जो लोग वर्षों से बदरीनाथ में रहते आए हैं, जो वहां के भूगोल और प्रकृति से वाकिफ हैं। वह ऐसे मनगढ़ंत खबरों को कतई नहीं मानेंगे। कहा गया है कि मंदिर के दो छोरों पर सिंचाई विभाग द्वारा करीब दो ढाई दशक पहले बनाई गई सुरक्षा दीवारें जो कि मंदिर से लगभग दो से चार सौ मीटर दूर हैं, क्षतिग्रस्त हो गई हैं, और दोनों छोरों के नालों का पानी रिसकर मंदिर की तरफ मलबे के साथ आ रहा है। दूसरा कि अलकनंदा से तप्तकुंड के निचले हिस्से में भूकटाव से कुंड को खतरा उत्पन्न हो गया है।


इन्हीं बातों को जब आजकल भी वहां रह रहे लोगों से पुष्टि किया गया तो उनका कहना था कि यहां ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है। खबरनवीसों की मानें तो यह बात मंदिर समिति द्वारा बताई गई है। सो अब यह समझना होगा कि आखिर मंदिर समिति को ऐसी मनगढंत खबर फैलाकर क्या लाभ हो सकता है, और खुद को पहाड़ का प्रतिनिधि जतलाने वाला मीडिया क्यों इसमे नमक मिर्च लगाकर परोस रहा है। क्यों  नहीं वह वहां के भूगोल का अध्ययन कर लेता, या वहां रहने वाले लोगों से तथ्यों की पुष्टि कर लेता है। क्या यह उसकी नैतिक जिम्मेदारी नहीं है।

इससे पहले भी कुछ दिनों पूर्व इसी मीडिया द्वारा एक सेटेलाइट चित्र की आड में बदरीनाथ के समीप अलकनंदा में झील बनने का दुष्प्रचार किया गया था। जिस पर खुद उन्हें बैकफुट पर आना पड़ा।
बताते चलें कि जिस तरह मंदिर के करीब पानी और मलबा आने की बात कही जा रही है, यह कोई नई बात नहीं है। वर्षों से बरसात के दिनों में बदरीनाथ के परिक्षेत्र में हजारों जलस्रोत फूटते हैं। इंद्रधारा और नारायणी नाले में वेग से मलबा आता रहा है। मगर कभी इससे मंदिर या यहां बसी आबादी को खतरा नहीं हुआ। कारण, जहां सिंचाई विभाग की सुरक्षा दीवारें इन्हें डायवर्ट करती हैं, वहीं मंदिर के पृष्टभाग में बने एंटी एवलांच पिरामिड पानी और मलबे को चारों ओर परिवर्तित करने में मददगार साबित होते रहे हैं। यहां तक कि शीतकाल में पहाड़ से ग्लेशियर आने की स्थित में भी यह उसे बिखेर देने में सक्षम हैं।

दूसरा तप्तकुंड को भूकटाव से खतरे की बात भी निराधार है, कारण तप्तकुंड किन्हीं सीमेंट ब्लाकों पर नहीं बल्कि हार्ड रॉक पर टिका हुआ है। नदी के छोर पर वराहसिला अलकनंदा की धारा को दूसरी ओर मोड़ रही है। यहां तक कि कुंड के ठीक सामने करीब 25 फुट लंबा एक कमरा जो कि कपड़े बदलने के लिए बनाया गया है, वह भी सख्त  चट्टान पर मौजूद है। रही बात सीमेंट ब्लाक के ढहने की तो यह आज नहीं बल्कि एक दशक के पहले से ही नदी की तरफ लुढ़के नजर आते हैं, जो कुंड के नीचे नहीं बल्कि काफी दूरी पर हैं।

ऐसे में समझ नहीं आ रहा है कि आखिर इन चटखारे दार खबरों के जरिए मीडिया कौन सा उल्लू सीधा करना चाहता है। और जो सरकारी प्रतिष्ठान उन्हें ऐसा कच्चा रॉ मै‍टरियल उपलब्ध करा रहे हैं, उनका इसमें कौन सा हित छुपा हुआ है। कहीं ऐसा तो नहीं कि केंद्र से आए धन की बंदरबांट में हिस्से के लिए ऐसी कोशिशें हो रही हैं, या कि सरकारों को उनकी नाकामियां दिखाकर दबाव में लेने के प्रयास किए जा रहे हैं।

खैर, जो भी हो। लेकिन यह सब पहाड़ के हितों के लिहाज से बिलकुल भी सही नहीं है। आने वाले दौर में इसके गंभीर परिणामों के लिए पहाड़ के उन लोगों का भी खामियाजा भुगतना तय है, जो आज किसी न किसी वजह से चुप्पी साधे बैठे हैं।

आलेख- धनेश कोठारी
(पुराना आलेख रिपोस्ट)

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