क्या फर्क पड़ता है

ये इतनी लाशें
किस की हैं
क्यों बिखरी पड़ी हैं
ये बच्चा किसका है
मां को क्यों खोज रहा है....मां मां चिलाते हुए
दूर उस अंधेरे खंडहर में
वो सफेद बाल...बूढी नम आंखें
क्यों लिपटी हैं
एक मृत शरीर से
क्यों आखिर क्यों बिलख रही है
नयी नवेली दुल्हन
उस मृत पड़े शरीर से लिपट,लिपट कर



क्यों ज़मींदोज़ हो गए
गांव के गांव
कल तक जिन खेत-खलिहानों में
खनकती थी
चूड़ियां बेटी बहुओं के हाथों में
गुनगुनाते थे...लोक गीत
फ्योली-बुरांश के फूल भी
वो क्यों सिसक रहे हैं...वहां
जहां कल तक वो खिलखिलाते थे....
ढोल-दमाऊ-डोंर-थाली

आखिर क्यों मौन...हो गए
क्यों कर ली बंद आंखें
देवभूमि के देवताओं ने
बाबा केदार के दरबार में....
इस मौन से,इस टूटने-बिखरने से
उनको
क्या फर्क पड़ता है
जो सुर्ख सफेद वस्त्र पहन
गुजर रहे हैं
इन लाशों और खंडहर हो चुकी ज़मीं के ऊपर से
जो खुद को सबसे बड़ा हितैषी बता रहे हैं
खंड-खंड हो चुके,घर-गांव का....
देश की बात करने वाले ये चेहरे
इन लाशों पर खड़े होकर
सीना चौड़ाकर...करते है बयान-बाजी
कि
हमने अपने कुछ आंसूओं को समेट लिया है
अंजुरी में अपनी...
बाकि बिखर गए तो हम क्या करें...
इनके
घर की दीवारें तो अब और अधिक
चमचमाएंगी
इनके घर में रखे पुराने टीवी
एलईडी टीवी की शक्ल में हो जाएंगे तब्दील
इनके बच्चे....विदेशों के बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में शिक्षार्थ जाएंगे
इनकी पुरानी खटारा गाड़ी
नयी-नयी गाड़ियों के काफिले में हो जायेगी तब्दील
....और....
मॉडर्न सोफों पर लेट
-सी रूमों में बैठकर
देखेंगे...ये सब उन लाशों को...आंसुओं को...
उजड़ चुकी मांगों को,सूनी मांओं की गोद को
टूटे-बिखरे घरों को-
जिन्हें...अभी-अभी एक आपदा ने लिया है-आगोश में अपनी...जिनके साथ होने का कर रहे हैं
दावा ये ... चमचमाते कैमरों के सामने खडे हो
बाबा केदार के दरबार में...

इन्हें
क्या फर्क पड़ता है
असंख्य रिश्तों के टूट जाने,बिखर जाने से
असंख्य लाशों के सड़ जाने,गल जाने से
इनके लिए तो ये लाशें,इन लाशों पर
चीखते-बिलखते लोगों
खुशियां लेकर आयी है,वरदान बनकर आयी है
इन्हीं लाशों पर चलकर तो
ये अब खुद के लिए नयी ज़मीन तैयार करेंगे
खुद के भविष्य को उज्जवल बनाएंगे
....और...
एक दिन हम भी सब कुछ भूल कर
इनके उज्जवल भविष्य में शामिल हो जाएंगे...क्या फर्क पड़ता है।

जगमोहन आज़ाद

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