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Showing posts from June, 2013

बाबा केदार के दरबार में

जगमोहन  ' आज़ाद '//  खुद के दुखों का पिटारा ले खुशीयां समेटने गए थे वो सब जो अब नहीं है ... साथ हमारे , बाबा केदार के दरबार में हाथ उठे थे ... सर झुके थे दुआ मांगने के लिए ... बहुत कुछ पाने के लिए अपनो के लिए - मगर पता नहीं ... बाबा ने क्यों बंद कर ली - आंखे हो गए मौन - मां मंदाकिनी भी गयी रूठ   ... और ... फिर .. सूनी हो गयी कई मांओं की गोद बिछुड़ गया बूढे मां - पिता का सहारा उझड़ गयी मांग सुहानगों की छिन गया निवाला कई के मुंह से ढोल - दमाऊ - डोंर - थाली लोक गीत की गुनगुनाहट हो गयी मौन .... हमेशा - हमेशा के लिए , कुछ नम् आँखे जो बची रह गयी .... खंड - खंड हो चुके गांव में ... वो खोज रही है ... उन्हें जो कल तक खेलते - कुदते थे गोद में , खेत - खलिहान में इनके , असंख्य लाशों के ऊपर ... चिखते - बिलखते हुए बाबा केदार के दरबार में ... । किसको समेट किस - किस को गले लगा कर समेटे आंसू ... इनके अंजूरी में अपने किसी मां की गोद में ले

क्या फर्क पड़ता है

ये इतनी लाशें किस की हैं क्यों बिखरी पड़ी हैं ये बच्चा किसका है मां को क्यों खोज रहा है .... मां मां चिलाते हुए दूर उस अंधेरे खंडहर में वो सफेद बाल ... बूढी नम आंखें क्यों लिपटी हैं एक मृत शरीर से क्यों आखिर क्यों बिलख रही है नयी नवेली दुल्हन उस मृत पड़े शरीर से लिपट , लिपट कर क्यों ज़मींदोज़ हो गए गांव के गांव कल तक जिन खेत - खलिहानों में खनकती थी चूड़ियां बेटी बहुओं के हाथों में गुनगुनाते थे ... लोक गीत फ्योली - बुरांश के फूल भी वो क्यों सिसक रहे हैं ... वहां जहां कल तक वो खिलखिलाते थे .... ढोल - दमाऊ - डोंर - थाली आखिर क्यों मौन ... हो गए क्यों कर ली बंद आंखें देवभूमि के देवताओं ने बाबा केदार के दरबार में .... इस मौन से , इस टूटने - बिखरने से उनको क्या फर्क पड़ता है जो सुर्ख सफेद वस्त्र पहन गुजर रहे हैं इन लाशों और खंडहर हो चुकी ज़मीं के ऊपर से जो खुद को सबसे बड़ा हितैषी बता रहे हैं खंड - खंड हो चुक

वाह रे लोकतंत्र के चौथे खंभे

मित्रों कभी कभी मुझे यह सवाल कचोटता है कि आखिर हम पत्रकारिता किसके लिए कर रहे हैं। निश्चित ही इसके कई जवाब भी कई लोगों के पास होंगे। मगर जब मैं कवरेज को भी खांचों में बंटा देखता हूं , तो दिमाग सन्‍न रह जाता है। ऐसा ही एक वाकया हाल के दिनों में देखने को मिला , केदारनाथ त्रासदी में बचे लोगों को ऋषिकेश लाया जा रहा था। हर अखबारनवीस , टीवी रिपोर्टर दर्द से सनी मार्मिक कहानियों को समेट रहा था , क्‍योंकि डेस्‍क की डिमांड आ चुकी थी। दर्द को बेचकर ही शायद पाठकों के दिलों तक पहुंचने का सवाल था। दो तीन दिन कहानियां समेटी गई , पीड़ा की गाढ़ी चाशनी में डूबोकर परोसी भी गई , मगर तभी एक मित्र ने बताया कि डिमांड में चेंज आ गया है। अब ऐसे शहरों , प्रदेशों के लोग तलाशे जाएं जहां उनके पेपरों का सर्कुलेशन है। सो यदि गुजरात , कर्नाटक , राजस्‍थान , पश्चिम बंगाल का कोइ्र वापस लौटा व्‍यक्ति कराहता भी मिला तो उसकी अनेदखी होनी शरू हो गई। केवल सर्कुलेशन व

बाबा, बाबा आप कहां हैं..

उत्‍तराखंड में जलप्रलय के बाद मचा तांडव हमारे अतीत के साथ ही भविष्‍य को भी बहा ले गया है। कहर की विनाशकता को पूरा देश दुनिया जान चुकी है, मदद को हाथ उठने लगे हैं, सहायता देने वालों के दिल और दरवाजे हर तरफ खुल गए हैं। मगर अफसोस कि अभी तक हरसाल योग के नाम पर विदेशियों से लाखों कमाने वाले बाबा, पर्यावरण संरक्षण और निर्मल गंगा के नाम पर लफ्फाजियां भरी बैठकों का आयोजन करने वाले बाबा, गंगा की छाती पर अतिक्रमण करने वाले बाबा, सरकारी जमीनों और मदद की फिराक में रहने वाले बाबा, पीले वस्‍त्रधारी संस्‍कृत छात्रों के बीच चमकने वाले बाबा, कहीं नजर नहीं आ रहे हैं।  आखिर वह अब हैं कहां.. क्‍यों नहीं आए वह अब तक त्रासदी के दर्द को कम करने के लिए, क्‍यों नहीं खुले अब तक उनके खजाने , क्‍यों नहीं भेजी उन्‍होंने अब तक अपनी (तथाकथित) गंगा बचाओ अभियान की फौज मदद के लिए, क्‍यों शोक जताने के लिए सिर्फ एक पेड़ लगाकर इतिश्री कर ली उन्‍होंने, कहां चला गया उनका विभिन्‍न 'टी' वाला प्रोग्राम। कोई अब भी इनके आभामंडल में घिरा रहे तो अफसोस ही जताया जा सकता है। बंधुओं बात सिर्फ किसी एक बाबा कि नहीं, बल्कि

मूर्ति बहने का राष्ट्रीय शोक

         ऋषिकेश में एक मूर्ति बही तो देश का पूरा मीडिया ने आसमान सर पर उठा लिया। खासकर तब जब वह न तो ऐतिहासिक थी , न पौराणिक। 2010 में भी मूर्ति ऐसे ही बही थी। जबकि राज्‍य के अन्‍य हिस्‍सों में हजारों जिंदगियां दफन हो चुकी हैं। तब भी मीडिया के लिए मूर्ति का बहना बड़ी खबर बनी हुई है। मजेदार बात कि यह क्लिप मीडिया को बिना प्रयास के ही मिल गए। आखिर कैसे .. जबकि ऋषिकेश में राष्‍ट्रीय मीडिया का एक भी प्रतिनिधि कार्यरत नहीं है। एक स्‍थानीय मीडियाकर्मी की मानें तो यह सब मैनेजिंग मूर्ति के स्‍थापनाकारों की ओर से ही हुई। अब सवाल यह कि एक कृत्रिम मूर्ति के बहने मात्र की घटना को राष्‍्ट्रीय आपदा बनाने के पीछे की सोच क्‍या है। इसके लाभ क्‍या हो सकते हैं .. कौन और कब पहचाना जाएगा , या कब कोई सच को सामने लाने की हिकमत जुटाएगा। क्‍या मीडिया की भांड परंपरा में यह संभव है।   किसी के पास यदि इसी स्‍थान की करीब डेढ़ दशक पुराना फोटोग्राफ्स हो तो काफी कुछ समझ आ जाएगा कि क्‍या गंगा इतनी रुष्‍ट हुई या उसे अतिक्रमण ने मजबूर कर दिया। अब एकबार फिर गंगा और मूर्ति के नाम पर आंसू बहेंगे , और कुछ समय बाद कोई

मैं, इंतजार में हूं

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मैं, समझ गया हूं तुम भी, समझ चुके हो शायद मगर, एक तीसरा आदमी है जो, चौथे और पांचवे के - बहकावे में आ गया है खुली आंखों से भी नहीं देखना चाहता 'सच' मैं और तुम विरोधी हैं उसके कारण, हम नहीं सोचते उसकी तरह न, वह हमारी तरह सोचता है रिक्‍त शब्‍द भरो की तरह हम खाली 'आकाश' भरें, भी तो कैसे सवाल कैनवास को रंगना भर भी नहीं पुराने चित्र पर जमीं धूल की परतें खुरचेंगे, तो तस्‍वीर के भद्दा होने का डर है मैं, इंतजार में हूं एक दिन हिनहिनाएगा जरुर और धूल उतर जाएगी उसकी काश... हमारा इंतजार जल्‍दी खत्‍म हो जाए रात गहराने से पहले ही...... सर्वाधिकार- धनेश कोठारी