विकास का सफर

        विकास का सफर ढ़ोल ताशों की कर्णभेदी से शुरू होकर शहनाई की विरहजनित धुन के साथ कार्यस्थल पर पहुंचता है। बाइदवे यदि यात्रा के दौरान निर्धारित समय व्यतीत हो गया तो वह अवमुक्ति के बगैर ही उलटे बांस बरेली की बतर्ज लौट पड़ता है। यों दूर के ढोल की मादक थाप पर मंजिल पर बैठा इन्तजार करता आदमी उसके आने की उम्मीद में अभिनंदन की मुद्रा में तरतीब हो जाता है। मगर रूदन भरी दशा से मुखातिब होते ही उसे शोकसभा आहूतकर बिस्मिल्लाह कहना पड़ता है।

वह जब सत्ता की देहरी से विदा होता है तो पतंगे शिद्दत से इतराते हैं। मर्मज्ञ कथावाचक उसकी देहयष्टि का रेखांकन इस मादकता से करते हैं कि भक्तगण बरबस इठलाये बिना नहीं रह पाते। विकास मार्निंग वाक पर निकल टहलते-टहलते प्रियजनों से भरत मिलाप करते हुए, खुचकण्डि का कलेवा बांटते हुए लक्ष्यभूमि में उसकी हकीकत नुमाया हो जाती है। जैसे ‘को नहीं जानत है जग......’की भांति कि, वह किस प्रयोजन से और किसके लिए उद्घाटित होता है। भूखा-प्यासा थका-मांदा मांगता है। किंतु-परंतु में नियति देखिए कि वहां राजा हरिश्चंद्र की भूमिका में संभावना टटोली जाती हैं। कभी-कभी उसे गुंजाइश के बिना भी झपट लिया जाता है।

आधा खपा-आधा बचा की भाव भंगिमा में कहीं स्वर्णमयी आभा के तो कहीं कृष्णमुखी छटा के दर्शन होते हां, किंतु उसकी त्रिशंकु मुद्रा से भी आशायें मरती नहीं और वह भी सहजता से अपने दया भाव को भी नहीं खोता है। अमूर्त अवस्था के बावजूद सपनों का यह सौदागर मांग आधारित अवयव है। गैर आमंत्रण की पनाह में जाना उसका मजहब नहीं। इसलिए स्वस्थ सहारे पर उसी का होना उसकी काबलियत मा नमूना है। इस बात से भी ऐतराज नहीं कि वह अक्सर मंजिल से पूर्ववर्ती तिराहों-चौराहों पर ‘भटक भैरु’ बन जाता है। सौभाग्यशाली विकास का गौरव हालांकि अवमुक्ति में ही निहित है। लेकिन कदाचित परिस्थितियों से भी उसे परहेज नहीं रहता है।

उसे कभी भी डोमोसाइल या लालकार्ड की जरूरत नहीं पड़ी। गरीबी रेखा पर पहुंचने के बाद भी रचने-बसने में उसे दिक्कत नहीं आती। विकास हुआ तो वाहवाही और न हुआ तो लांछन का हकदार भी नहीं। परजीवी अवश्य उसके नियंता बना बैठते हैं। जहां वह आश्वासन की भूमिका में मंचासीन कर दिया जाता है। तेज फ्लड लाइटों में रैप म्यूजिक के साथ रैंप पर कैटवाक करता खुलेपन की हवा में उसकी चाल चहक उठती है। और कहानी की डिमांड पर तनबदन नमूदार होता है। वह डग उसी स्टाइल में भरता है जिस शैली को अंगूठा छाप तय करता है।

काबलियत के तो क्या कहने चुनावों में वह प्रत्याशी तो नहीं होता, मगर प्रत्याशी के प्रति प्रत्याशा का संचार अवश्य करता है। जाति, धर्म, क्षेत्र व दल निरपेक्षता का धुर समर्थक विकास यदि खुद कैंडीडेट बन जाये तो कौन माई का लाल है जो जीत का जामा स्वयं पहन ले। बस उसकी असहायता ही कहूंगा कि कंधे पर बंदूक रखने वाले उसे कभी प्रत्याशी के किरदार में नहीं आने देते। नतीजा, मांग आधारित होने के कारण सदैव निराशा की कारा में कैद रहा। फिलहाल मैं निराश नहीं, क्योंकि सरकारी तख्त की आशाओं को बांधने की अपेक्षा मैं बौद्धिक विकास की जुगाली में व्यस्त हूं।
@Dhanesh Kothari

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