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Showing posts from August, 2017

सिर्फ भाषणों और नारों से नहीं बचती बेटियां!

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जिस पर बेटियों के साथ दुराचार व हत्या के आरोप में सीबीआई जांच के बाद न्यायालय में मुकदमा चल रहा हो , ऐसे व्यक्ति को देश के प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी जी स्वच्छता अभियान का ब्रांड एंबेसडर बनाते हैं। उनकी पार्टी सत्ता में आने के लिए ऐसे व्यक्ति के साथ वोटों का सौदा करती है। वोटों के सौदे से चुनाव जीतने के बाद उनकी पार्टी के कई बड़े नेता दुराचार के आरोपी के घर में मत्था टेकने जाते हैं। ऐसा ही कुछ विधानसभा चुनाव के समय भी किया जाता है। वहां  भी वोटों को खरीदने के लिए दुराचार के आरोपी के साथ बड़ी ही निर्लज्जता के साथ समझौता किया जाता है। बात यहीं तक नहीं रहती , देश के प्रधान सेवक की पार्टी उनका सार्वजनिक महिमामंडन करती है और ऐसा करते हुए खुद को गौरवान्वित भी महसूस करती है। महिमामंडन के बाकायदा पोस्टर व बैनर तक लगाए जाते हैं। हरियाणा में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री के अलावा उनके मंत्रिमंडल के अधिकांश सदस्य पिफर से दुराचार के आरोपी के दरबार में मत्था टेकने जाते हैं। इससे समझा जा सकता है कि देश किस राह पर जा रहा है , पर जिन्होंने दुराचार व हत्या के आरोपी को ब्रांड एंबे

कैसा है कीड़ाजड़ी का गोरखधंधा

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देवभूमि उत्तराखंड अपनी नैसर्गिकता के साथ ही प्राकृतिक संपदा से भी परिपूर्ण है। इसी संपदा में शामिल हैं वह हजारों औषधीय पादप , जो आज के दौर में भी उपयोगी हैं। यही कारण है कि आज भी चिकित्सा की आयुर्वेदिक पद्धति के शोधकर्ता हिमालय का रुख करते हैं। खासबात कि यह सब पहाड़ की पुरातन परंपरा का हिस्सा हैं। गांवों में जानकार बुजुर्ग आज भी अपने आसपास से ही इन्हीं औषधियों का उपयोग कर लेते हैं। चीन और तिब्बत में कीड़ाजड़ी परंपरागत चिकित्सा पद्धित का हिस्सा है। ऐसी ही जड़ी बूटियों में शामिल है औषधीय पौधा कीड़ा-जड़ी। करीब 3500 मीटर से अधिक ऊंचाई पर उगने वाली इस जड़ी के दोहन की इजाजत नहीं होने और विश्व बाजार में इसकी मुहंमांगी कीमत के चलते वर्षों से अवैध दोहन किया जा रहा है। एक तरह से उत्तराखंड में यह अवैध कारोबार की शक्ल ले चुका है। नेपाल , तिब्बत , भूटान आदि में इसे ‘ यारसागुंबा ’ के नाम से भी जाना जाता है। जंगली मशरुम की शक्ल का यह पौधा एक खास कीड़े की इल्लियों यानि कैटरपिलर्स को मारकर उसपर पनपता है। इसका वैज्ञानिक नाम कॉर्डिसेप्स साइनेसिस है। जिस कीड़े के कैटरपिलर्स पर यह उगता है उसका नाम हैपि

वीर भड़ूं कू देस बावन गढ़ कू देस

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वीर भड़ूं कू देस बावन गढ़ कू देस... , प्रख्यात लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी का यह गीत सुना ही होगा। जी हां! गढ़वाल को 52 गढ़ों का देश भी कहा जाता है। इस परिक्षेत्र में 52 राजाओं के आधिपत्य वाले यह राज्य तब स्वतंत्र थे। इनके अलावा भी गढ़वाल हिमालय क्षेत्र में थोकदारों के अधीन छोटे अन्य गढ़ भी थे। छठी शताब्दी में भारत में आए चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी इनमें से कुछ का जिक्र किया था।  माना जाता है कि नौवीं शताब्दी से करीब 250 वर्षों तक यह गढ़ अस्तित्व में थे। बाद में राजाओं के बीच आपसी लड़ाईयों का फायदा पंवार वंशीय राजाओं ने उठाया। 15 वीं सदी तक यह सब पंवार वंश के अधीन हो गए थे। पंवार वंश के राजा अजयपाल सिंह ने इसके बाद गढ़वाल परिक्षेत्र का सीमांकन किया। इससे पूर्व 52 गढ़ों किस रूप में थे एक संक्षिप्त विवरण 01- नागपुर गढ़- जौनपुर परगना के इस राज्य का आखिरी राजा भजन सिंह हुआ था। 02- कोली गढ़ - यह बछवाण बिष्ट जाति के लोगों का गढ़ था। 03- रवाण गढ़ - बदरीनाथ मार्ग में इस गढ़ का नाम रवाणी जाति के वर्चस्व के कारण पड़ा। 04- फल्याण गढ़- यह फल्दकोट में था। पहले यह राज्य राजपूत और फिर ब्राहमणों क

यहां है दुनिया का एकलौता 'राहू मंदिर'

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कभी नहीं सुना होगा कि देश के किसी गांव में देवों के साथ दानव की पूजा भी हो सकती है। आश्चर्य होगा सुन और जानकर कि उत्तराखंड के एक गांव में भगवान शिव के साथ राहू को भी पूजा जाता है। इस मंदिर में भोलेनाथ शिव के साथ राहू की प्रतिमा भी स्थापित है। इस मंदिर को देश ही नहीं दुनिया का भी एकमात्र राहू मंदिर माना जाता है।         यह मंदिर उत्तराखंड के जनपद पौड़ी गढ़वाल अंतर्गत राठ क्षेत्र के पैठाणी गांव में स्थित है। रेलवे हेड कोटद्वार से करीब 150 किमी. थलीसैण विकासखंड के पैठाणी गांव में। यह प्राचीन मंदिर पूर्वी और पश्चिमी नयार नदियो ंके संगम पर स्थापित है। राहू की धड़विहीन प्रतिमा वाला यह मंदिर अपने शिल्प से ही प्राचीनतम जान पड़ता है। मंदिर की शिल्पकला भी अनोखी और आकर्षक है।         धार्मिक आख्यानों और दंतकथाओं में माना गया है कि जब समुद्र मंथन में चौदह रत्नों में एक रत्न अमृत भी निकला था। जिसे पीने वाला अजर अमर हो जाता। तब राहू अमृत पीने और अमर होने की लालसा में वेश बदलकर देवताओं की कतार में बैठ गया। यहां तक कि राहू ने अमृत पान भी करने लगा , तभी भगवान विष्णु को इस बात का पता चल गया और उ

कब खत्म होगा युवाओं का इंतजार ?

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उत्तराखंड आंदोलन और राज्य गठन के वक्त ही युवाओं ने सपने देखे थे , अपनी मुफलिसी के खत्म होने के। उम्मीद थीं कि नए राज्य में नई सरकारें कम से कम यूपी की तरह बर्ताव नहीं करेंगी , उन्हें रोजगार तो जरूर मिलेगा। जिसके लिए वह हमेशा अपने घरों को छोड़कर मैदानों में निकल पड़ते हैं। सिलसिला आज भी खत्म नहीं हुआ है। वह पहले की तरह ही घरों से पलायन कर रहे हैं। गांव की खाली होने की रफ्तार राज्य निर्माण के बाद ज्यादा बढ़ी। सरकारी आंकड़े ही इसकी गवाही दे रहे हैं। ऐसा क्यों हुआ ? जवाब बहुत मुश्किल भी नहीं। उत्तराखंड को अलग राज्य के तौर पर अस्तित्व में आए 17 साल पूरे होने को हैं। सन् 2000 में जहां प्रदेश में बेरोजगारों की संख्या तीन लाख से कम थी , वह अब 10 लाख पार कर चुकी है। जबकि आज के दिन राज्य के विभागों और सार्वजनिक उपक्रमों में 75 हजार से अधिक पद खाली हैं। सेवायोजन के आंकड़ों के मुताबिक हरसाल करीब 50 हजार बेरोजगार पंजीकृत हो रहे हैं। चुनावी दावों के बावजूद अब तक की कोई सरकार युवाओं को एक साल में 2000 से ज्यादा नौकरियां नहीं दे सकीं। समूह ‘ घ ’ के पद खत्म कर दिए गए हैं और ‘ ग ’ श्रेणी के पद

आखिर क्या मुहं दिखाएंगे ?

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किचन में टोकरी पर आराम से पैर पसारे छोटे से टमाटर को मैं ऐसे निहार रहा था , जैसे वो शो-केस में रखा हो। मैं आतुर था कि उसे लपक लूं। इतने में ही बीबी ने कहा- अरे! क्या कर रहे हो , ये एक ही तो बचा है। कोई आ ही गया तो क्या मुहं दिखाएंगे ? आजकल किचन में टमाटर होना प्रेस्टीज इश्यू हो गया है। पूरे 100 रुपये किलो हैं। तब क्या था , मैंने टमाटर की तरफ से मुहं फेरा और चुपचाप प्याज से ही काम चलाने की सोची। दरअसल मैं अपनी ‘ भाजी ’ को टमाटर के तड़के के बिना खाने का मोह नहीं त्याग पा रहा था। मित्रों भोजन! साहित्य पर नजर डालें तो वैदिककाल में टमाटर का उल्लेख शायद ही किसी ने किया हो। हां गुजराती के प्रसिद्ध व्यंग्यकार विनोद भट्ट जी ने जरुर ये खोजकर लिखा कि- महाभारत में विधुर जी के घर भगवान श्रीकृष्ण को शाक-भाजी नहीं , अपितु मशरूम की खीर परोसी गई थी। रामायण को लें तो यहां भी शबरी के बेर के अलावा तुलसीदास जी ने अन्य व्यंजनों पर मौन ही साधा है।   तो मैं भी इसके बिना मौन साध लेता हूं। गोल गोल ये लाल टमाटर कहां से लाएं लाल टमाटर बीबी बोली लाए टमाटर हम बोले क्यों लाएं टमाटर पूरे 100

वह दूसरे जन्म में पानी को तरसती रही

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एक परिवार में दो महिलाएं जेठानी और देवरानी रहती थी। जेठानी बहुत दुष्ट और देवरानी शिष्ट , सौम्य , ईमानदार व सेवा भाव वाली थी। दोनों के ही कोई संतान नहीं थी। देवरानी जो भी कमाकर लाती , वह अपनी जेठानी को सौंप देती और दुःख-दर्द के वक्त पूरे मनोयोग से उसकी सेवा करती। ताकि दोनों में प्रेम भाव बना रहे। किंतु देवरानी के इतना करने के बाद भी जेठानी हर समय नाराज रहती , उसके साथ किसी भी काम में हाथ नहीं बंटाती। एक बार देवरानी बीमार पड़ गई। उसने तब भी कोई काम करना नहीं छोड़ा। वह काफी कमजोर पड़ गई। जब वह काम करने और खुद भोजन आदि तैयार करने में एकदम असमर्थ हो गई , तब उसको अपने लिए सहारे की आवश्यकता अनुभव हुई। उसने अपनी जेठानी से कुछ खाना देने को कहा। लेकिन जेठानी ने उसकी बात अनसुनी कर दी। यहां तक कि वह सिर्फ अपने लिए खाना बनाती और देवरानी को खाना नहीं देती। जब देवरानी भूख-प्यास से व्याकुल होने लगी , तो उसने फिर अपनी जेठानी से अनुनय-विनय की। लेकिन तब भी जेठानी ने खाना नहीं दिया। जब वह मरणासन्न होकर प्यास से अत्यधिक व्याकुल हो उठी , तो उसने अपनी जेठानी से अपनी अंतिम इच्छा के रूप में एक गिलास पानी

फिर जीवंत हुई ‘सयेल’ की परंपरा

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हरियाली पर्व ‘ हरेला ’ की तरह पहाड़ के लोकजीवन में धान की रोपाई के दौरान निभाई जाने वाली ‘ सयेल ’ की परंपरा भी हमारे पर्वतीय समाज में सामुहिकता के दर्शन कराती है। हरेला को हमने हाल के दिनों में सरकारी आह्वान पर कुछ हद तक अपनाना शुरू कर दिया है। मगर , सयेल की परंपरा कहीं विस्मृति की खोह में जा चुकी है। यह खेती से हमारी विमुखता को दर्शाती है। हालांकि पिछले दिनों यमकेश्वर विकास खंड के गांव सिंदुड़ी के बैरागढ़ तोक में बुजुर्ग कुंदनलाल जुगलाण की पहल पर जरूर इसे दोबारा से चलन में लाने की कोशिश हुई है।             पहाड़ में धान की रोपाई के वक्त सयेल की शुरूआत लोक वाद्ययंत्रों ढोल दमाऊं की थाप और जागरों के बीच होती थी। इसका आशय था काश्तकार का अपने ईष्टदेव से अच्छी खेती की कामना करना। मांगलिक कार्य की तरह से धान की रोपाई की यह परंपरा आज बदलते दौर की आपाधापी के बीच लगभग खत्म हो गई। पहाड़ों से पलायन ने हरेला की तरह इसे भी भुला ही दिया। अच्छी बात यह कि 2014 की आपदा से तबाह बैरागढ़ की खेती को दोबारा जिंदा करने के मकसद से यहां के ग्रामीण 65 वर्षीय बुजुर्ग कुंदनलाल जुगलाण की पहल पर इस सांस्कृतिक