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Showing posts from May, 2016

दुनियावी नजरों से दूर, वह 'चिपको' का 'सारथी'

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दुनिया को पेड़ों की सुरक्षा के लिए 'चिपको' का अनोखा मंत्र देने और पर्यावरण की अलख जगाने वाले 'चिपको आंदोलन' के 42 साल पूरे हो गए हैं। इस आंदोलन की सबसे बड़ी 'यूएसपी' थी, पर्वतीय महिलाओं की जीवटता और निडरपन। मात्रशक्ति ने समूची दुनिया को बता दिया था, कि यदि वह ठान लें तो कुछ भी असंभव नहीं। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इस आंदोलन को अपने मुकाम तक पहुंचाने में चिपको नेत्री गौरा देवी, बाली देवी और रैणी- रिगड़ी गांव की महिला मंगल दल सदस्‍यों समेत धौलीगंगा घाटी के दर्जनों गांवों के लोगों का उल्‍लेखनीय योगदान रहा। साथ ही चिपको नेता चंडी प्रसाद भट्ट, हयात सिंह बिष्‍ट, वासुवानंद नौ‍टियाल आदि अनेकों लोगों ने आंदोलन में कामयाब भूमिका अदा की। समूचा विश्‍व चिपको आंदोलन की कामयाबी से अचंभित रहा और आज भी है। मगर, इस सबके बीच जिस व्‍यक्ति की बदौलत आज चिपको आंदोलन विश्‍व मानचित्र पर अपनी ध्‍वजा को लहराए हुए है। वह 'सारथी' दुनिया की नजरों से हमेशा दूर ही रहा। बिलकुल हम बात कर रहे हैं, कॉमरेड गोविंद सिंह रावत की। जिनको जाने बिना चिपको आंदोलन की गौरवगाथा

'जग्वाळ' से शुरू हुआ था सफर

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उत्‍तराखंडी फिल्‍मों का सफरनामा 4 मई का दिन उत्‍तराखंड के लिए एक खास दिन है। जब दुनिया में सिनेमा के अन्‍वेषण के करीब सौ साल बाद 1983 में पहली आंचलिक फीचर फिल्‍म 'जग्‍वाळ' प्रदर्शित हुई। यह इतिहास रचा नाट्य शिल्‍पी पाराशर गौड़ ने। तकनीकी कमियों के बावजूद पहली फिल्‍म के नाते 'जग्वाळ' को औसत रिस्‍पांस मिला। इसके बाद बिन्देश   नौडियाल ने 1985 में 'कबि सुख कबि दु:ख' प्रदर्शित की। जो कि कमजोर कथानक के चलते दर्शकों को कतई आकर्षित नहीं कर सकी। 1986 का साल जरुर आंचलिक सिनेमा के लिए उत्‍साहजनक रहा। मुंबई के उद्यमी विशेश्वर नौटियाल ने तरनतारन धस्‍माना के निर्देशन में उत्‍तराखंड को पहली सबसे कामयाब फिल्‍म 'घरजवैं' दी। इस फिल्‍म ने आंचलिक सिनेमा को नई उम्‍मीद भी दी। जिसकी बदौलत उत्‍तराखंड सिनेमा का यह सफर 33 साल पूरे कर चुका है। सन् 1986 में ही शिवनारायण रावत निर्मित और तुलसी घिमीरे निर्देशित फीचर फिल्‍म 'प्‍यारू रूमाल' सिनेमाघरों में लगी। जो कि नेपाली फिल्‍म 'कुसमई रुमाल' से गढ़वाली भाषा में डब मात्र थी। इसी साल एक और फीचर फिल्‍म '

पुष्‍कर की 'मशकबीन' पर 'लोक' की धुन

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चेहरे पर हल्की सफ़ेद दाढ़ी... पहाड़ी व्‍यक्तित्व और शान को चरितार्थ करती हुई सुंदर सी मूछें... सिर पर गौरवान्वित महसूस कर देने वाली पहाड़ी टोपी... साधारण पहनावा और वेषभूषा... ये पहचान है, विगत 45 बरसों से मशकबीन के जरिये लोकसंस्कृति को संजोते, सहेजते पुष्कर लाल की। जो अकेले ही शादी ब्याह से लेकर , मेले , कौथिगों और धार्मिक अनुष्ठानों में अपनी ऊँगलियों के हुनर के जरिये पहाड़ की लोकसंस्कृति की विरासत को बचाए हुये हैं। उत्‍तराखंड के जनपद चमोली की प्रसिद्ध निजमुला- गौना ताल की घाटी में बसा एक खुबसूरत गांव है गाड़ी। गाड़ी गांव ही पुष्कर लाल का पैतृक गांव है। उम्र के 64 वें पड़ाव पर पहुँच चुके पुष्कर आज भी बड़ी शिद्दत से अपनी विरासत के संरक्षक बने हुए हैं। बचपन में ये अपने दादा जी के साथ हिमालयी बुग्यालों में बकरियों को चुगाने जाया करते थे। जहां इन्हें अपने दादा जी से बासुंरी की धुन सिखने को मिली। वह धुन इन्हें इतनी भायी, कि वो उनकी जिंदगी का हिस्‍सा ही बन गई। अक्सर बुग्यालों में एक जगह पर ही रहकर वह बासुंरी की धुन के जरिए बकरियों को इधर से उधर ले आते थे। 19 साल की उम्र में इन्होंने एक

मैं माधो सिंह का मलेथा हूँ­­­

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हुजूर ! !  मैं मलेथा हूँ, गढ़वाल के  52  गढ़ों के बीरों की बीरता के इतिहास की जीती जागती मिसाल। मैंने इतिहास को बनते और बदलते हुये देखा ,  गढ़वाल के बीर भड़ों की बीरता को देखा और अपनी माटी के लिए अपनों को ही मौन और बेजुबान होते भी देखा। श्रीनगर के राजशाही साम्राज्य को देखा तो दो बार गौना ताल टूटने से लेकर मनसुना और केदारनाथ की तबाही में अलकनंदा के बिकराल रूप को देखा है मैंने। लेकिन अपनी माटी को बचाने के लिए बेजुबान और मौन सपूतों को पहली बार  इतनी करीब से देखा की मेरा पूरा रोम रोम दर्द से कराह उठा। मेरे पास जब कुछ नहीं था, तो मेरे सपूत माधो सिंह भंडारी ने मेरी बंजर और सूखे खेतों को हरा भरा करने के लिए पूरे पहाड़ को काटकर मलेथा गूल बनाई और जब उसमे पानी नहीं आया तो मुझे हरा भरा करने के लिए अपने जिगर के टुकड़े को ही कुर्बान कर दिया था। तब जाकर मेरी सुखी और बंजर धरती पर हरियाली लौट आई। इस हरियाली ने मेरे गांव ही नहीं, अपितु हजारों-हजारों लोगों को जो ख़ुशी दी उसे में बयान नहीं कर सकती हूँ। मेरे सीडीनुमा खेत बरसों से ही मेरी पहचान रहें है ,  मैंने बरसों से कभी भी अपने सपूतों को खाली पेट