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Showing posts from December, 2016

गुलज़ार साहब की कविता "गढ़वाली" में

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लोग सै ब्वळदिन, ब्यठुला हैंकि बानि का उलखणि सि हुंदिन । सर्या राति फस्सोरिक नि सिंदिन, कभि घुर्यट त कबरि कणट कनि रंदिन, अद्निंदळ्यामा भि कामकाजा कु स्या पट्टा लेखिक, लाल पिंग्ळि पिठै लगैकि, दिनमनि मा ब्यौ बरि उर्याणि रंदिन पुर्याणि रंदिन । द्वार मोर का च्यौला, चटगण, गोलण, संगुळि, ननातिनों का तींदा कयां सलदरास, गत्यूड़ अर गद्यलि, अर छ्वारों कु बब्बा कु कळग्यसरु मन, जपकाणि रैंद, द्यखणि  रैंद, मलसणि रैंद, अर सुबेर तक उणिंदि रैंद । तबि त निंदि म वा, भजणि रैंद, भजणि रैंद, भजणि रैंद । निंद भूख हर्चैकि भि किळै तणतणि सि हुंदिन । सचै, ब्यठुला भि बक्कि बाता का उलखणि सि हुंदिन ॥ बथौं सि चक्करापति ख्यलणि रैंद । उबरि चुलू फर, उबरि गुठ्यारम, त उबरि सग्वड़म, उबरि स्यारम । छन्छ्या का भदलुंद, बक्ळा गीत थड़काणि रैंद । अर लड़बड़ि छुयूं का दगड़ा दगड़ि, हारु लूण रळाणि रैंद ॥ कभि चम्म खड़ि ह्वै जांद, रोज दिनमान दगड़  झमडा-झमड खड़ाखड़ि ह्वै जांद । चौका खळ्याणम तुड़ाबुड़ि ह्वै जांद । अफु थैं अफु से प्वारम छटकैकि, जिकुड़ियूं का नजीक चिनगरि सि, सुलगणि सि रंदिन ।

समझौता-विहीन संघर्षों की क्रांतिकारी विरासत को सलाम

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तेइस अप्रैल , 1930 को बिना गोली चले , बिना बम फटे पेशावर में इतना बड़ा धमाका हो गया कि एकाएक अंग्रेज भी हक्के-बक्के रह गये , उन्हें अपने पैरों तले जमीन खिसकती हुई-सी महसूस होने लगी। इस दिन हवलदार मेजर चन्द्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में रॉयल गढ़वाल राइफल्स के जवानों ने देश की आजादी के लिए लडऩे वाले निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया। अंग्रेजों ने तो पठान स्वतंत्रता सेनानियों के विरूद्ध गढ़वाली फौज को उतारा ही इसलिये था कि हिंदू-मुस्लिम विभाजन का ‘ बांटो और राज करो ’ खेल जो वे 1857 के ऐतिहासिक विद्रोह के बाद से इस देश में खेलते आये थे , उसे वे पेशावर में एक बार फिर सरंजाम देना चाहते थे। लेकिन 23 अप्रैल , 1930 को पेशावर में हुई इस घटना को इस तरह पेश किया जाता है जैसे कि गढ़वाली सिपाहियों ने क्षणिक आवेश में आकर यह कार्यवाही कर दी हो। जबकि वास्तविकता यह है कि यह क्षणिक आवेश में घटित घटना या कांड नहीं था। यह एक सुविचारित विद्रोह था जिसकी तैयारी चन्द्र सिंह गढ़वाली और उनके साथी काफी अर्से से कर रहे थे। अंग्रेजी फौज में भर्ती होने से पूर्व चन्द्र सिंह की कोई विधिवत शिक्षा नही

दुनिया ने जिन्हें माना पहाड़ों का गांधी

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24 दिसंबर 1925 को अखोड़ी गाँव,पट्टी-ग्यारह गांव, घनसाली, टिहरी गढ़वाल में श्रीमती कल्दी देवी और श्री सुरेशानंद जी के घर एक बालक ने जन्म लिया। जो उत्तराखंड के गांधी के रूप मे विख्यात हुए। इनका नाम था इन्द्रमणी बडोनी । इनकी कक्षा 4 (लोअर मिडिल) अखोड़ी से, कक्षा 7(अपर मिडिल)रौडधार प्रताप नगर से हुई। इन्होने उच्च शिक्षा देहरादून और मसूरी से बहुत कठिनाइयों के बीच पूरी की। इनके पिताजी का जल्दी निधन हो गया था । इन्होने खेती बाड़ी का काम किया और रोजगार हेतु बॉम्बे गये। अपने 2 छोटे भाई महीधर प्रसाद और मेधनीधर को उच्च शिक्षा दिलाई । इन्होने गांव में ही अपने सामाजिक जीवन को विस्तार देना प्रारम्भ किया जगह जगह सांस्कृतिक कार्यक्रम कराये। इन्होंने वीर भड़ माधो सिंहभंडारी नृत्य नाटिका और रामलीला का मंचन कई गांवों और प्रदर्शनियों में किया ।  यह एक अच्छे अभिनेता, निर्देशक, लेखक, गीतकार, गायक, हारमोनियम और तबले के जानकार और नृतक थे। संगीत में उनके गुरु लाहौर से संगीत की शिक्षा प्राप्त श्री जबर सिंह नेगी थे। ये बालीबाल के कुशल खिलाड़ी थे। इन्होंने जगह-जगह स्कूल खोले। 1956 में स्थानीय कलाकारों क

गोर ह्वेग्यो हम

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जैकि मरजि जनै आणी, वु उनै लठ्याणूं छ जैकि गौं जनै आणी, वु उनै हकाणू छ ज्वी जनै पैटाणू छ, उनै पैटि जाणा छौ हम सच ब्वन त मनखि नि रैग्यो, गोर ह्वेग्यो हम छ्वटि बड़ि धाणि खुणै, यूंका मुख नज़र छ क्य कन, कनु कन, कब कन,सब यूंका हथ पर छ नकप्वणों घळ्यॉ छन, यूंन स्यूंता हमारा अब जनै यि दौड़ाणा छन,उनै दौड़ण लग्यॉ छौ हम सच ब्वन त मनखि नि रैग्यो, गोर ह्वेग्यो हम गिच्चु त यून हमारो, पट्ट लीसन बुजेयालि कन्दूणों का पुटका हमारा,यून रुआ कुचेयालि दौळे यलो यून त पैदा होन्दै हम अब जनै रंग्वड़णा छन, उनै रंग्वड़ेणा छौ हम  सच ब्वन त मनखि नि रैग्यो, गोर ह्वेग्यो हम प्रयोगशाला बणयीं छन, हमारि इसकूल यून मिंडका समझि यली, हमारा नौन्याळ यून ज्वी आणूछ वी चीर फाड़ कैरिकि,चलि जाणू छ दाड़ि कीटिकि, स्वीळि पिड़ा सी सब सैंणा छौ हम  सच ब्वन त मनखि नि रैग्यो,गोर ह्वेग्यो हम पण आखिर कब तक, गौउ बणिकि रैण हमन, मदारि कि सान्यूं मा बान्दर सि, नचणूं रैण हमन जैदिन चैढि जालु ,लाटु गुस्सा ना हमफरै  ता फिर नि ब्वल्यॉ कि कखि जुगा नि रैग्यो हम  सच ब्वन ता कुछ, ज्यादा लटै यलों तुमन हम  सर्वाधिकार

युगों से याद हैं सुमाड़ी के 'पंथ्‍या दादा'

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सुमाड़ी गांव 'जुग जुग तक रालू याद सुमाड़ी कू पंथ्‍या दादा'  लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के एक गीत की यह पंक्तियां आपको याद ही होंगी. यह वही सुमाड़ी गांव के पंथ्‍या दादा थे, जिन्‍होंने तत्‍कालीन राजशाही निरंकुशता और जनविरोधी आदेशों के विरोध में अपने प्राणों की आहु‍ती ही दे डाली थी. उत्‍तराखंड की महान ऐतिहासिक गाथाओं में उनका नाम उसी गौरव के साथ शुमार ही नहीं, बल्कि उन्‍हें याद भी किया जाता है. पन्थ्या दादा का जन्म सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरा ‌ र्द्ध में पौड़ी गढ़वाल की कटूलस्यूं पट्टी के प्रसिद्ध गांव सुमाडी में हुआ था. माता पिता का देहांत उनके बचपन में ही होने से उनका लालन पालन बहन की ससुराल फरासू में हुआ. उस समय उत्तराखंड का गढ़वाल क्षेत्र  52  छोटे राज्यों (गढ़ों) में बंटा हुआ था. इन्हीं गढ़पतियों में से एक शक्तिशाली राजा मेदनीशाह का वजीर सुमाड़ी का सुखराम काला था. लोकमान्यताओं के अनुसार राजा अजयपाल ने जब अपनी राजधानी चांदपुर गढ़ी से देवलगढ़ में स्थानांतरित की थी, तो उन्होंने सुमाड़ी का क्षेत्र काला जाति के ब्राह्मणों जो कि मां गौरा के उपासक थे ,  को दान में दे दिया थ

हत्यारी सडक

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अतुल सती//  ऋषिकेश से लेकर  बद्रीनाथ तक  लेटी है नाग की तरह  जबडा फैलाये  हत्यारी सडक  राममार्ग 58  रोज माँगती है  भूखी नर भक्षणी शिकार  अब तक अनगिनत  कई हजार  नौजवान एक  15 दिन का ब्याहता  मिलकर लौटा था  कुछ घंटे पहले अपनी  नयी नवेली दुल्हनिया से  ला रहा था सवारी  जोशीमठ चाइं का नीरज  दीवार पर अटकी  सड़क की चट्टान का  शिकार हुआ  22-24 साल की उम्र में  पिछले ही साल ... यात्रा को जाते हेमकुंड  सिक्ख 16 कुचल गये  यात्री बस पलट गयी  सड़क के पार 32 मरे  दो लडके आल्टो सवार  बिरही गंगा बहे  जोशीमठ के उमेश भाई शाह  बच्चा साहित  अलकनन्दा में बिरही के पास  तोता घाटी  मौत की घाटी  लील गयी कितने ही  बेशकीमती जीवन  असमय  300 किलोमीटर  की लम्बाई में  जगह -जगह हर मोड-मोड़  फन फैलाए  नाग की तरह  खडी कर दी है मौत  ड्सने को तैयार  कितने दीप बुझे  मजदूर बनाते हुए सड़क  दब गये चट्टान तले  डोजर पर बैठा  सड़क खोदता ड्राइवर  दब गया मलबे तले  सिरोबगड़ में  मजदूर, सड़क पार करते  पैदल जवान बच्चे