लोक स्वीकृत रचना बनती है लोकगीत
लोकगीतों के संदर्भ में कहा जाता है , कि लोक जीवन से जुड़ी , लोक स्वीकृत गीत , कृति , रचना ही एक अवधि के बाद स्वयंमेव लोकगीत बन जाती है। जैसा कि ‘ बेडो पाको बारामासा ’ ‘ तू होली बीरा ऊंची डांड्यों मा ’ । क्योंकि वह लोक स्वीकार्य रहे हैं। इसी तरह पहाड़ में भी लिखित इतिहास से पूर्व और लगभग बीते तीन दशक पहले तक ‘ बादी - बादिण ’ सामाजिक उतार - चढ़ावों , बदलावों , परम्पराओं इत्यादि पर पैनी नजर रखते थे , और इन्हीं को अपने अंदाज में सार्वजनिक तौर पर प्रस्तुत भी करते थे। इन्हें ‘ आशु कवि ’ भी माना जा सकता है। मजेदार बात , कि बादी - बादिणों द्वारा रचित गीत लिपिबद्ध होने की बजाय मौखिक ही पीढी दर पीढ़ी हस्तांतरित हुए। ऐसे ही जागर , बारता , पंवड़ा , चैती आदि भी लिपिबद्ध होने से पूर्व मौखिक ही नये समाजों को हस्तांतरित होते रहे। कई गीतों को लगभग ढ़ाई - तीन दशक पहले बादियों से और ग्रामोफोन पर सुना था। तब ये गीत कभी आकाशवाणी से भी सुनने को मिल जाते थे। जहां तक शोध की विषय है , तो स्व . श्री गोविन्द चातक जी द्वारा लोकगीतों व उनके इतिहास पर काफी काम क