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Showing posts from December, 2015

देवतुल्य हैं ढोल दमौऊं

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प हाड़ी लोकवाद्य ढोल दमौऊं को देवतुल्य माना गया है। दुनिया का यही एकमात्र वाद्य है जिसमें देवताओं को भी अवतरित करने की शक्ति है। तांबे व पीतल से बने इस ढोल के दोनों छोर की पुड़   ( मढ़ी हुई खाल )   में दिन - रात के देवता सूर्य ,   चंद्रमा :   डोर में गणेश भगवान के विराजित होने का उल्लेख पौराणिक संदर्भों में मिलता है। इसके साथ प्रयुक्त दमौऊ को काली के खप्पर के रूप में माना जाता है। इनके नाद स्वरों के वर्णन में शब्दकारों ने ढोलसागर रचा है ,   जिसमें ढोल - दमौऊ से गुंजित नादस्वरों व तालों को शब्दायित किया गया है। माना जाता है कि ढोल के तालस्वरों में भी भगवती सरस्वती का वास है। पहाड़ के सभी मंगल कार्यों के वक्त ढोल से   ‘ धुंयाळ ’   उद्‍बोधित कर शुभारम्भ का आह्वान किया जाता है तो वहीं जागर ,   वार्ता ,   पंवड़ा में विविध तालों से सृष्टि उत्पति की कथा ,   वीरों की शौर्य कथायें और चैती के द्वारा प्रकृति के सौंदर्य को लोकजीवन में प्रवाहित किया जाता है।

किसे है सभ्‍य बने रहने की जरुरत

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ज माने के साथ बदलते पहाड़ी संगीत के बहाने कई बार बहसें शुरू हुई। उनके अब तक भले ही पूरी तरह से फलितार्थ न निकले हों। मगर बहस समाज को निश्चित तौर पर चिंतन के लिए प्र‍ेरित करती है। यह आवश्यक भी है। दुनिया में दिखाने वाले तो ब्लू फिल्में भी परोस रहे हैं। लेकिन समझना तो समाज को है, कि सभ्य बने रहने की जरूरत किसको है। बाजारवाद में हर कोई  ‘ बेचने ’  को उतावला है। मगर अच्छा - बुरा परखने की जिम्मेदारी तो हमारी है। मैं खुद बीते २० सालों से गढ़वाली साहित्‍य के क्षेत्र में कार्यरत हूं। हालांकि सही मुकाम अब तक नहीं मिला। इसका एक कारण यह भी रहा कि मुझसे भी कई बार  ‘ सांस्कृतिक आतंक ’  फैलाने वाले गीतों की डिमांड की गई। लेकिन मैंने अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को जानते हुए  ‘ समझौते ’  की बजाय गुमनाम रहना मुनासिब समझा। यह इसलिए लिख रहा हूं, कि आम समाज पहले संस्कृतिकर्मियों की जिम्मेदारी है। वे कथित आधुनिकता के नाम पर समाज के सभ्‍य ढांचे को बिखेरने के लिए  ‘ बलास्टिंग ’  न ही करें तो अच्‍छा। इसके लिए बारूद से पहाड़ों को तोड़ने वाले ही काफी हैं। साहित्य ,  गीत - संगीत हर समाज के तानेबाने की बुना

नई ऊर्जा, नई दिशा और नया आकाश

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- धाद   लोक   वाद्य   एवं   लोककला   संवर्धन   स्वायत्त   सहकारिता तुंगनाथ   मंदिर   में   नौबत   बजाने   वाले   लोक-कलाकार   मोलूदास   के   अंतिम   क्षणों   में हमें   जो   बात   सबसे   अधिक   आहत   कर   गई थी,   वो   एक   तरह   की   अघोषित   सांस्कृतिक   अश्‍पृश्‍यता थी।   केवल   'कृपा'   पर   जीने   की   आदत   ने   उनके   परिजनों   और   उन्‍हीं के समाज   में   मानवीय   सम्‍मान की चाहत को भी कहीं गहरे दफना दिया था। ये   सवाल   उठा   तो, मगर   आगे   नहीं   बढ़ सका। यह भी एक   कड़वा   सच   था   कि बहुत   फख्र से उन्‍हें लोक-कलाकार   कहने   वाला   समाज   मोलूदास को मानवीय   संवेदनाओं के अनुसार भी विदाई   देने में नाकाम दिखा। चार बरस बाद जब चार अक्‍टूबर को   मोलूदास   की   पुण्‍यतिथि के आयोजन के मौके पर यह   प्रस्ताव   आया,   कि   उत्तराखंड   के   लगभग   सभी   सांस्कृतिक   आयोजनों   के दौरान   उन   सभी   का   हाशिए पर   रहना-   जो   कि इसके   वास्तविक   हक़दार   हैं,   एक   बड़ा   सवाल   है।   लिहाजा, पीढ़ियों   से   कुछ   अद्भुत थापों ,  तालों   की   थाती   को   संजोये