Posts

Showing posts from November, 2015

लोक स्‍वीकृत रचना बनती है लोकगीत

Image
             लोकगीतों के संदर्भ में कहा जाता है ,  कि   लोक जीवन से जुड़ी ,  लोक स्वीकृत गीत ,  कृति ,  रचना ही एक अवधि के बाद स्‍वयंमेव लोकगीत बन जाती है। जैसा कि  ‘ बेडो पाको बारामासा ’ ‘ तू होली बीरा ऊंची डांड्यों मा ’ ।   क्योंकि वह लोक स्वीकार्य रहे हैं। इसी तरह पहाड़ में भी लिखित इतिहास से पूर्व और लगभग बीते तीन दशक पहले तक  ‘ बादी - बादिण ’  सामाजिक उतार - चढ़ावों ,  बदलावों ,  परम्पराओं इत्यादि पर पैनी नजर रखते थे ,  और इन्हीं को अपने अंदाज में सार्वजनिक तौर पर प्रस्तुत भी करते थे। इन्हें  ‘ आशु कवि ’  भी माना जा सकता है।  मजेदार बात ,  कि बादी - बादिणों द्वारा रचित गीत लिपिबद्ध होने की बजाय मौखिक ही पीढी दर पीढ़ी हस्तांतरित हुए। ऐसे ही जागर ,  बारता ,  पंवड़ा ,  चैती आदि भी लिपिबद्ध होने से पूर्व मौखिक ही नये समाजों को हस्तांतरित होते रहे। कई गीतों को लगभग ढ़ाई - तीन दशक पहले बादियों से और ग्रामोफोन पर सुना था। तब ये गीत कभी आकाशवाणी से भी सुनने को मिल जाते थे।              जहां तक शोध की विषय है ,  तो स्व .  श्री गोविन्द चातक जी द्वारा लोकगीतों व उनके इतिहास पर काफी काम क

कम्प्यूटर पर न खोज्यावा धौं पहाड़ तैं

Image

जख देवतों का ठौ छन भैजि

Image

..और उम्‍मीद की रोशनी से भर गई जिंदगियां

Image
तू जिन्दा है तो जिंदगी की जीत पर यकीन कर, अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर ...  दीपोत्सव दीवाली की शाम जब केदारघाटी के आकाश में वो आतिश पहुंची, तो साहित्‍यकार लोकेश नवानी सहसा ही माइक पर ये गीत गाने लगे। उनके भाव ने हमें जाने अनजाने में हमें यह यकीन दे दिया, कि  2  जुलाई  2013  को केदारनाथ आपदा के बाद प्रारंभ हुई हमारी (धाद की) आपदा प्रभावित छात्रों के पुनुरुत्थान के निमित्‍त यह यात्रा अपने संकल्प को पूरा कर पाने की राह में है। राहत कार्यों में जुटे हम लोगों को आपदा प्रभावित छात्रों की शिक्षा में सहयोग करने का ये विचार जिस बातचीत के दौरान आया, उसमें भी हम ये नहीं जानते थे कि ये यात्रा कितनी दूर तलक जा पायेगी, और ये परिस्थितिजन्य सम्बन्ध एक दिन हम सभी को एक गहरे दायित्वबोध से भर देगा। काशीनाथ वाजपेयी ,  गजेन्द्र रौतेला और अजय जुगरान जैसे स्थानीय मित्रों के सहारे हमने उन चेहरों को तलाशने की कोशिश की, जिन तक पहुंचा जाना जरूरी था। फिर जब भारत नौटियाल के नेतृत्व मैं और हमारे अध्यक्ष हर्षमणि व्यास के प्रयासों के कारण विभिन्न संस्थाओं और आम समाज का सहयोग मिला, तो ये प्रयास  100 

नई लोकभाषा का 'करतब' क्‍यों ?

Image
उत्तराखण्ड को एक नई भाषा की जरुरत की बात कई बार उठी। यह विचार कुछ वैसा ही है जैसे राज्य निर्माण के वक्त प्रदेश के पौराणिक व ऐतिहासिक नाम को ठेंगा दिखा,उत्तरांचल कर दिया गया था। देश में हर प्रांत की अपनी-अपनी भाषा है। इन्हीं भाषाओं की कई उपबोलियां भी हैं। तब भी गुजराती, मराठी, बांग्ला,  डोगरी, तमिल, तेलगू, कन्नड, उड़िया, पंजाबी या अन्य ने खुद को समझाने के लिए या दुनिया के सामने खुद को परिभाषित करने के लिए किसी तीसरी भाषा अथवा बोली को ईजाद नहीं किया। माना जा सकता है, कि हर भाषा के शब्दकोश में निश्चित ही नये शब्दों को आत्मसात किया जाता रहा है। यह भाषा के परिमार्जन व विकास से भी जुड़ा है, और देशकाल में यह भाषा का व्यवहारिक पक्ष भी है। मजेदार बात, कि हम अभी गढ़वाली व कुमांऊनी को ही एक रूप में व्यवहार में नहीं ला पायें हैं। यहां आज भी भाषा नदियों, गाड की सीमा रेखाओं में विभाजित है। यद्यपि यह कुछ गलत भी नहीं। क्योंकि किसी भी भूगोल में व्याप्त भाषा को संख्या बल के आधार पर अनदेखा नहीं किया जा सकता है। ऐसा करना उसे मौत का फरमान सुनाने जैसा होगा। उसकी पहचान को खत्म करने की साजिश होगी। ठी

गैरसैंण राजधानी : जैंता इक दिन त आलु..

Image
अगर ये सोच जा रहा हैं कि गैरसैंण में कुछ सरकारी कार्यालयों को खोल देने से . कुछ नई सड़कें बना दिये जाने से , कुछ क्लास टू अधिकारियों को मार जबरदस्ती गैरसैंण भेज देने से राजधानी के पक्षधर लोग चुप्पी साध लेंगे। शायद नहीं .... । आज भावातिरेक में यह भी मान लेना कि उत्तराखण्ड में जनमत गैरसैंण के पक्ष में है। तो शायद यह भी अतिश्‍योक्ति से ज्यादा कुछ नहीं है। भाजपा ने जब राज्य की सीमायें हरिद्वार - उधमसिंहनगर तक बढ़ाई थीं तो तब ही अलग पहाड़ी राज्य का सपना बिखर गया था , और फिर परिसीमन ने तो मानो खूंन ही निचोड़ दिया। इसके बाद भी गैरसैंण की मांग जारी है। क्यों है न आश्‍चर्य .... । सच यह भी है कि राज्य का एक बड़ा वर्ग जो शिक्षित है और , बेहद चालाक भी ... । मगर वह समझ - बुझकर भी अनजान है कि अलग राज्य क्यों मांगा गया ? वह अनजान ही बने रहना भी चाहता है। क्योंकि यदि वह नौकरीपेशा है तो उसे आरामदायी नौकरी के आसान तरीके मालूम हैं। व्यवसायी है तो , वह सत्ता - पार्टियों को ‘ चंदे ’ का लॉलीपाप दिखाने का हुनर रखता है। राजनीतिज्ञ है तो , जानता है कि - कितनी बोतलों में उसकी जीत सुनिश्चित होगी।           द

झड़ने लगे हैं गांव

चारू चन्द्र  चंदोला// सूखे पत्तों की तरह झड़ने लगे हैं यहाँ के गाँव उजड़ने लगी है मनुष्यों की एक अच्छी स्थापना महामारी और बमबारी के बिना मनुष्यों से रिक्‍त हो जाने के बाद बचे रह जाएँगे यहाँ केवल पेड़ , पत्थर , पहाड़ , नदियां बदरी - केदार के वीरान रास्ते अतीत की स्मृतियाँ पूर्वजों की आत्माओं को भटकाने के लिए भग्नावशेषों के थुपड़े चलो ऐसा करें पहाड़ के गाँवों को पूरी तरह खाली करें और मैदानों में ले आएँ देवभूमि को बेऔलाद करने के लिए वहाँ के कीड़े - मकोड़े भी नहीं चाहते कि वे वहाँ के क्वूड़ों , पूड़ों और पुँगड़ों में रहें उन्हें भी चाहिए देहरादुनी - सुविधाएँ , मायायें और कायाएँ इसलिए - महानाद के साथ मारते हुए एक ऐतिहासिक धाद कह दो अपने मानवीय चालकों , परिचालकों और तथाकथित उद्धारकों से - " जिसके लिए हम लड़े - भिड़े , नपे - खपे वह राज्य तुम्हारे लिए ही हो गया तुम्हारा ही हो गया इसलिए - तुम्हारी ही तरह सेठ बनने के लिए अपने गाँवों को मैदानों में ले जाने के लिए ‘ ठन ’ गए हैं हम रास