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Showing posts from October, 2015

हे रावण

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रावण तुम अब तक जिंदा हो, तुम्हें तो मार दिया गया था त्रेता में. ... उसके बाद भी सदियों से तुम्हें जलाते आ रहे हैं हम.... तब भी जिंदा हो... रावण आखिर बताओ तो, कब और कैसे मरोगे तुम. ... सर्वाधिकार@धनेश कोठारी 08/09/2014

जै दिन

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जै दिन मेरा गोरू तेरि सग्वाड़यों, तेरि पुंगड़यों उजाड़ खै जाला जै दिन झालू कि काखड़ी चोरे जालि जै दिन धारु धारु कि घस्येनि हपार धै लगालि तब सम्झलू कि- गौं आबाद छन। सर्वाधिकार- धनेश कोठारी 

जब प्रेम में जोगी बन गया एक राजा

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राजुला-मालूशाही पहाड़ की सबसे प्रसिद्ध अमर प्रेम कहानी है। यह दो प्रेमियों के मिलन में आने वाले कष्‍टों ,  दो जातियों ,  दो देशों ,  दो अलग परिवेश में रहने वाले प्रेमियों का कथानक है। तब सामाजिक बंधनों में जकड़े समाज के सामने यह चुनौती भी थी। यहां एक तरफ बैराठ का संपन्‍न राजघराना रहा, वहीं दूसरी ओर एक साधारण व्‍यापारी परिवार।   तब इन दो संस्कृतियों का मिलन आसान नहीं था। लेकिन एक प्रेमिका की चाह और प्रेमी के समर्पण ने प्रेम की ऐसी इबारत लिखी, जो तत्‍कालीन सामाजिक ढांचे को तोड़ते हुए नया इतिहास रच गई। राजुला मालूशाही की प्रचलित लोकगाथा कुमांऊं के पहले राजवंश कत्‍यूर के किसी वंशज को लेकर यह कहानी है।   उस समय कत्‍यूरों की राजधानी बैराठ वर्तमान चौखुटिया थी। जनश्रुतियों के अनुसार बैराठ में तब राजा दोलूशाह शासन करते थे।   उनकी कोई संतान नहीं थी।   इसके लिए उन्‍होंने कई मनौतियां मनाई। अन्‍त में उन्‍हें किसी ने बताया कि वह बागनाथ  ( बागेश्वर )  में शिव की अराधना करें, तो उन्‍हें संतान की प्राप्‍ति हो सकती है। वह बागनाथ के मंदिर गये। वहां उनकी मुलाकात भोट के व्‍यापारी सुनपत शौका और उ

वुं मा बोली दे

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गणेश खुगसाल 'गणी' गढ़वाली   भाषा के लोकप्रिय और सशक्त कवि हैं। 'वुं मा बोली दे' उनकी प्रकाशित पहली काव्यकृति है। शीर्षक का अर्थ है उनसे कह देना। किस से कहना है और क्या कहना है, ये पाठक स्वयं तय करें। संग्रह की कविताएँ पहाड़ के गांव की माटी की सौंधी महक से लबरेज हैं। सांस्कृतिक क्षरण को प्रतिबिंबित करती ये कविताएँ,   सोचने पर विवश करती हैं। बकौल कवि वे वर्ष   1983-87   से कविता लिख रहे हैं, परन्तु उनका पहला काव्य संग्रह अब प्रकाशित हो रहा है। कविताओं को पढ़कर कहा जा सकता है कि देर आए दुरस्त आए। हालाँकि इस देरी के लिए उन्होंने अपने अंदर के डर को कारण बताया है, न हो क्वी कुछ बोलु। लेकिन पुस्तक छपने के बाद का बड़ा डर कि न हो क्वी कुछ बि नि बोलू। जो कि गढ़वाली रचनाकारों के साथ प्रायः होता रहा है। बाद का डर इसलिए क्योंकि गढ़वाली भासा साहित्य में समीक्षा का प्रायः अभाव सा है। गणी संवेदनाओं की अभिब्यक्ति का कवि है। गणी की काव्य वस्तु में सांस्कृतिक पृष्ठभूमि प्रमुख आधार रही है। लोक परम्पराओं की गहरी समझ रखने वाले इस कवि का भासा पर अधिकार उसकी पहचान का परिचायक भी है। ठ