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डेवलपमेंट 2020 मा

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नई सुबह की आस बंधाती है ‘सुबेरौ घाम’

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फिल्म   समीक्षा      ‘महिला की पीठ पर टिका है पहाड़’ यह सच, हालिया रिलीज गढ़वाली फीचर फिल्म ‘सुबेरौ घाम’ की ‘गौरा’ को देखकर जरुर समझ आ जाएगा। वह पेड़ों को बचाने वाली ‘चिपको’ आंदोलन की गौरा तो नहीं मगर, शराब के प्रचलन से उजड़ते गांवों को देख माफिया के विरूद्ध ‘इंकलाब’ की धाद (आवाज) लगाती गौरा जरुर है। फिल्म में गौरा के अलग-अलग शेडस् पहाड़ी महिलाओं को समझने और समझाने की निश्चित ही एक अच्छी कोशिश है। बचपन की ‘छुनका’ निडर गौरा बनकर गांवों में सुबेरौ घाम (सुबह की धूप) की आस जगाती है। वह पहाड़ों के ‘भितर’ खदबदाती स्थितियों पर भी सोये हुए मनों में ‘चेताळा’ रखती है। स्नोवी माउंटेन प्रोडक्शन की इस फिल्म की कहानी बरसों बाद ‘पंडवार्त’ देखने के बहाने गौरा के ससुराल से अपने गांव बौंठी लौटते हुए शुरू होती है। जहां वह रास्तेभर बातचीत में बेटे बिज्जू को अपने बचपन की खुशियां, साहसिक किस्से, लोक परंपराएं और हिमालय के खूबसूरत नजारों को ‘विरासत’ की तरह सौंपती जाती है। विवाह के 17 सालों तक देवी देवताओं की आराधना के बाद बिज्जू ने उसकी बांझ कोख में किलकारियां भरी थी, जो सुबेरौ घाम की मान

हे मेरी गढ़भूमि

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बोली छौं मैं भाषा छौं

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