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Showing posts from April, 2014

लंपट युग में आप और हम

    बड़ा  मुश्किल होता है खुद को समझाना, साझा होना और साथ चलना। इसीलिए कि 'युग' जो कि हमारे 'चेहरे' के कल आज और कल को परिभाषित करता है। अब आहिस्‍ता-आहिस्‍ता उसके लंपट हो जाने से डर लगता है। मंजिलें तय भी होती हैं, मगर नहीं सुझता कि प्रतिफल क्‍या होगा। जिसे देखो वही आगे निकलने की होड़ में लंपट होने को उतावला हो रहा है। हम मानें या नहीं, मगर बहुत से लोग मानते हैं, बल्कि दावा भी करते हैं, कि खुद इस रास्‍ते पर नहीं गए तो तय मानों बिसरा दिए जाओगे। दो टूक कहते भी हैं कि अब भोलापन कहीं काम नहीं आता, न विचार और न ही सरोकार अब 'वजूद' रखते हैं। काम आता है, तो बस लंपट हो जाना। इसीलिए सामने वाला लंपटीकरण से ही प्रभावित है। लंपटीकरण आज के दौर में बाजार की जरुरत भी लगती है। सब कुछ बाजार से ही संयोजित है। सो बगैर बाजारु अभिरचना में समाहित हुए बिना कौन पहचानेगा, कैसे तन के खड़े होने लायक रह पाओगे। यह न समझें कि यह अकेली चिंता है। कह न पाएं, लेकिन है बहुतों की। हाल में एक जुमला अक्‍सर सुनने को मिलता है, अपनी बनाने के लिए धूर्तता के लिए धूर्त दिखना जरुरी नहीं, बल्कि सीधा दिख

वह आ रहा है अभी..

कुछ लोग कह रहे हैं तुम मत आओ वह आ रहा है अभी उसके आने से पहले तुम आओगे , तो कुछ नहीं बदलेगा यहां-वहां न तुम में , न मुझमें , न किसी में तुम्हें आने से पहले देनी होगी परीक्षा    छोड़ना होगा उसका विरोध मानना और कहना होगा जो वह कहे , मनवाए तुम अभी मत आओ पहले नंबर उसका है टेस्ट पास करने का उसके लिए कुछ मौखिक सवाल- तैयार किए हैं हमने जब तुम्हारा टेस्ट लिया जाएगा तुम्हें नहीं मिलेंगे वैकल्पिक प्रश्न अनसोल्ड पेपर की सुविधा- अभ्यास के लिए वह आना चाहता है प्रथम हमने उसके लिए कर दिए हैं सारे इंतजाम माइनेस मार्किंग भी खत्‍म इसलिए तुम मत आओ अभी फेल हो जाओगे , परीक्षा में उसे लांघने के कारण तुम्हारा शुभेच्छु सिर्फ तुम्हारा.. । @ #धनेश कोठारी

भ्रष्‍टाचार, आदत और चलन

समूचा देश भ्रष्‍टाचार को लेकर आतंकित है , चाहता है कि भ्रष्‍टाचार खत्‍म हो जाए। मगर , सवाल यह कि भ्रष्‍टाचार आखिर खत्‍म कैसे होगा। क्‍या एक आदमी को चुन लेने से देश भ्रष्‍टाचार मुक्‍त हो जाएगा। हंसी आती है ऐसी सोच पर .....   16 वीं लोकसभा का चुनाव देखिए। इसमें प्रचार में हजारों करोड़ खपाए जा रहे हैं। निर्वाचन आयोग ने भी 70 लाख तक की छूट दे दी। क्‍या ये सब मेहनत की कमाई का पैसा है। क्‍या यह भ्रष्‍टाचार को प्रश्रय देने की पहली सीढ़ी नहीं। आखिर जो चंदे के नाम पर करोड़ों अरबों दे रहा है , क्‍या कल वह धंधे के आड़े आने वाली चीजों को मैनेज करने के लिए दबाव नहीं बनाएगा। क्‍या आपके वह अलां फलां नेताजी बताएंगे कि उन्‍हें मिलने वाला धन किन स्रोतों से आया है।  क्‍या आप उनसे यह सवाल पूछ सकेंगे , जब वह वोट मांगने आएं। क्‍या आप जानने के बाद उनसे सवाल करेंगे कि फलां घोटाले में उनका क्‍या हाथ था। दूसरा सवाल कि क्‍या आप अपने वाजिब हक के बाद भी रिश्‍वत देना या लेना छोड़ दोगे। क्‍या आप अपने हर काम को कानूनी तौर पर करने का मादा रखते हैं। क्‍या 30 से 40 प्रतिशत पर छूटने वाले ठेकों मे

हां.. तुम जीत जाओगे

हां..   निश्चित ही तुम जीत जाओगे क्योंकि तुम जानते हो जीतने का फन साम , दाम , दंड , भेद तुम्हें सिर्फ जीत चाहिए एक अदद कुर्सी के लिए जिसके जरिए साधे जाएंगे फिर वही साम , दाम , दंड , भेद जो महत्वाकांक्षा रही है तुम्हांरी घुटनों के बल उठने के दिन से अब दौड़ने लगे हो तुम , पूरे साम , दाम , दंड , भेद के साथ मगर , आखिरी सवाल कि क्यान यह साम , दाम , दंड , भेद केवल तुम्हारा अपने लिए होगा या कि उनके लिए भी , जो तुम्हारी जीत में सहभागी बनेंगे बरगलाए जाने के बाद... कापीराइट- धनेश कोठारी

बदलाव, अवसरवाद और भेडचाल

अवसरवाद नींव से लेकर शिखर तक दिख रहा है। वैचारिक अस्थिरता के कारण, नेता ही नहीं, पूर्व अफसर और अब तो आम आदमी भी विचलन का शिकार है। यह उक्ति कि 'जहां मिली तवा परात वहीं बिताई सारी रात' सटीक बैठ रही है। कल तक जिनसे नाक भौं सिकाड़ी जाती थी, उन्‍हीं की गलबहियां डाली जा रही हैं। छोड़ने से लेकर शामिल होने तक के उपक्रम चालू हैं। क्‍या इसे बदलाव की बयार का परिणाम कहेंगे, क्‍या वास्‍तव में ऐसे सभी सुजन अपने आसपास बिगड़ते माहौल को सुधारने के हामी हैं। क्‍या यही आखिरी मौका है, क्‍या उनके सामने विकल्‍प सीमित और आखिरी हैं... ऐसे ही कई सवाल... जिनके सीधे उत्‍तर तो शायद मिले, मगर, भेड़ों के झुंड जरुर दौड़ते दिख रहे हैं। पहले भी दौड़ते थे, और लग रहा है कि शाश्‍वत दौड़ते रहेंगे। शिक्षा और उच्‍च शिक्षा का भी उसपर शायद ही प्रभाव पड़े। लिहाजा, इस दौड़भाग के निहितार्थ भी समझे जाने चाहिए। यह आपाधापी स्‍वहित से आगे जाती नहीं दिखती। व्‍यक्तिवाद यहां भी हावी है, सूरज का ख्‍याल यहां भी बराबर रखा जा रहा है। ऐसे में यह दावा कि समाज, राज्‍य और देश बदलेगा, मिथ्‍या लगता है। लक्षित बदलाव वास्‍तविक बदला

गिरगिट, अपराधबोध और कानकट्टा

आज सुबह से ही बड़ा दु:खी रहा। कहीं जाहिर नहीं किया, लेकिन वह बात बार-बार मुझे उलझाती रही, कि क्‍या मुझसे गुनाह, पाप हुआ है। साथ ही मन को खुद ढांढ़स भी बंधा रहा था कि नहीं, पाप नहीं हुआ। अंजाने में कोई बात हो जाए तो व्‍यवहारिक तौर पर उसे गुनाह नहीं माना जाता है। कानूनी तौर पर जरुर इसे गैर इरादतन अपराध की श्रेणी में रखा जाता है। सो पसोपेस अब भी बाकी है। हुआ यह कि सुबह जब ड्यूटी जा रहा था, तो अपने घर के बाहर अचानक और अंजाने ही एक गिरगिट पैरों के तले रौंदा गया। उस पर पैर पड़ते ही क्रीच..क की आवाज से चौंक कर उछला, पीछे मुड़कर देखा तो गिरगिट परलोक सिधार चुका था। पहले क्रीच.. की आवाज पर मैंने समझा की कोई सूखी लकड़ी का दुकड़ा पैर के नीचे आया है। खैर ड्यूटी की देर हो रही थी, और गिरगिट मर चुका था। इसलिए आगे निकल पड़ा। लेकिन एक अंजाना अपराधबोध जो मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा था। अब तक जब लिख रहा हूं, तब भी मुझे डरा रहा है कि अंजाने ही सही गुनाह तो हुआ है। देखकर चलना चाहिए था। वह भी जमीन को देखकर, आसमान को नहीं। रह-रह कर पुराने लोगों के बोल भी याद आ रहे थे। जिनमें कहा जाता था कि यदि कभी कोई छिपकली

लो अब मान्‍यता भी खत्‍म

लो अब उक्रांद की राज्‍य स्‍तरीय राजनीतिक दल की मान्‍यता भी खत्‍म हो गई है। तो मान्‍यता खत्‍म होने के समय को लेकर क्‍या आपके जेहन में कुछ समझ आ रहा है। पहली बात कि बिल्लियों की लड़ाई को एक कारण माना जा सकता है। दूसरी अहम बात आप याद करें, जब दिवाकर जी मंत्री थे और चुनाव चिह्न को लेकर झगड़ा चल रहा था तो राज्‍य निर्वाचन आयोग ने उसे जब्‍त कर दिया था। और वह भी ऐन विधानसभा चुनाव से पहले। आया समझ में... ... नहीं न ...  अब लोकसभा चुनाव है तो निर्वाचन आयोग को याद आया कि उक्रांद को विस चुनाव में मान्‍यता के लायक मत नहीं मिले, उसका मत प्रतिशत कम था। सवाल कि विस चुनाव हुए दो साल हो चुके हैं, इससे पहले आयोग ने क्‍यों संज्ञान नहीं लिया... ऐन चुनाव के वक्‍त इस घोषणा का आशय क्‍या है.... कहीं यह राजनीति प्रेरित घोषणा तो नहीं... क्‍या उक्‍त दोनों निर्णयों को सत्‍तासीन दलों के प्रभाव में लिया गया फैसला तो नहीं हैं। लिहाजा, यदि उक्रांद का भ्रम और सत्‍ता के केंद्र के आसपास रहने की लोलुपता खत्‍म नहीं हुई हो तो स्‍पष्‍ट है कि उसका एजेंडा भी राज्‍य का हितैषी नहीं .....