लो अब मान्‍यता भी खत्‍म

लो अब उक्रांद की राज्‍य स्‍तरीय राजनीतिक दल की मान्‍यता भी खत्‍म हो गई है।
तो मान्‍यता खत्‍म होने के समय को लेकर क्‍या आपके जेहन में कुछ समझ आ रहा है। पहली बात कि बिल्लियों की लड़ाई को एक कारण माना जा सकता है।
दूसरी अहम बात आप याद करें, जब दिवाकर जी मंत्री थे और चुनाव चिह्न को लेकर झगड़ा चल रहा था तो राज्‍य निर्वाचन आयोग ने उसे जब्‍त कर दिया था। और वह भी ऐन विधानसभा चुनाव से पहले। आया समझ में...... नहीं न ... 


अब लोकसभा चुनाव है तो निर्वाचन आयोग को याद आया कि उक्रांद को विस चुनाव में मान्‍यता के लायक मत नहीं मिले, उसका मत प्रतिशत कम था।
सवाल कि विस चुनाव हुए दो साल हो चुके हैं, इससे पहले आयोग ने क्‍यों संज्ञान नहीं लिया... ऐन चुनाव के वक्‍त इस घोषणा का आशय क्‍या है.... कहीं यह राजनीति प्रेरित घोषणा तो नहीं... क्‍या उक्‍त दोनों निर्णयों को सत्‍तासीन दलों के प्रभाव में लिया गया फैसला तो नहीं हैं।
लिहाजा, यदि उक्रांद का भ्रम और सत्‍ता के केंद्र के आसपास रहने की लोलुपता खत्‍म नहीं हुई हो तो स्‍पष्‍ट है कि उसका एजेंडा भी राज्‍य का हितैषी नहीं .....

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