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Showing posts from 2014

मैं हंसी नहीं बेचता

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जी हां मैं हंसी नहीं बेचता न हंसा पाता हूं किसी को क्‍योंकि मुझे कई बार हंसने की बजाए रोना आता है हंसने हंसाने के लिए जब भी प्रयत्‍न करता हूं, हमेशा गंभीर हो जाता हूं इसी चेतना के कारण हंसी, हमेशा रुला देती है हास्‍य का हर एक किरदार मेरे शब्‍दों में उलझकर हंसाने की बजाए, चिंतन पर ठहर जाता है सामने सिसकते घाव मुझे आह्लादित नहीं करते फिर, कैसे शब्‍दों के जरिए हंसाऊं किसी को कैसे बेचूं मंचों पर हंसी नहीं आता, यह शगल इसलिए मैं नहीं बेचता हंसी ।। @ धनेश कोठारी

गैरा बिटि सैंणा मा

उत्तराखण्ड की जनसंख्या के अनुपात में गैरसैंण राजधानी के पक्षधरों की तादाद को वोट के नजरिये से देखें तो संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता है। क्योंकि दो चुनावों में नतीजे पक्ष में नहीं गये हैं। सत्तासीनों के लिए अभी तक 'हॉट सबजेक्ट' नहीं बन पाया है। आखिर क्यों? लोकतंत्र के वर्तमान परिदृश्य में 'मनमानी' के लिए डण्डा अपने हाथ में होना चाहिए। यानि राजनितिक ताकत जरूरी है। राज्य निर्माण के दस साला अन्तराल में देखें तो गैरसैण के हितैषियों की राजनितिक ताकत नकारखाने में दुबकती आवाज से ज्यादा नहीं। कारणों को समझने के लिए राज्य निर्माण के दौर में लौटना होगा। शर्मनाक मुजफ़्फ़रनगर कांड के बाद ही यहां मौजुदा राजनितिक दलों में वर्चस्व की जंग छिड़ चुकी थी। एक ओर उत्तराखण्ड संयुक्त संघर्ष समिति में यूकेडी और वामपंथी तबकों के साथ कांग्रेसी बिना झण्डों के सड़कों पर थे, तो दूसरी तरफ भाजपा ने 'सैलाब' को अपने कमण्डल भरने के लिए समान्तर तम्बू गाड़ लिये थे। जिसका फलित राज्यान्दोलन के शेष समयान्तराल में उत्तराखण्ड की अवाम खेमों में ही नहीं बंटी बल्कि चुप भी होने लगी थी। उम्मीदें हा

लंपट युग में आप और हम

    बड़ा  मुश्किल होता है खुद को समझाना, साझा होना और साथ चलना। इसीलिए कि 'युग' जो कि हमारे 'चेहरे' के कल आज और कल को परिभाषित करता है। अब आहिस्‍ता-आहिस्‍ता उसके लंपट हो जाने से डर लगता है। मंजिलें तय भी होती हैं, मगर नहीं सुझता कि प्रतिफल क्‍या होगा। जिसे देखो वही आगे निकलने की होड़ में लंपट होने को उतावला हो रहा है। हम मानें या नहीं, मगर बहुत से लोग मानते हैं, बल्कि दावा भी करते हैं, कि खुद इस रास्‍ते पर नहीं गए तो तय मानों बिसरा दिए जाओगे। दो टूक कहते भी हैं कि अब भोलापन कहीं काम नहीं आता, न विचार और न ही सरोकार अब 'वजूद' रखते हैं। काम आता है, तो बस लंपट हो जाना। इसीलिए सामने वाला लंपटीकरण से ही प्रभावित है। लंपटीकरण आज के दौर में बाजार की जरुरत भी लगती है। सब कुछ बाजार से ही संयोजित है। सो बगैर बाजारु अभिरचना में समाहित हुए बिना कौन पहचानेगा, कैसे तन के खड़े होने लायक रह पाओगे। यह न समझें कि यह अकेली चिंता है। कह न पाएं, लेकिन है बहुतों की। हाल में एक जुमला अक्‍सर सुनने को मिलता है, अपनी बनाने के लिए धूर्तता के लिए धूर्त दिखना जरुरी नहीं, बल्कि सीधा दिख

वह आ रहा है अभी..

कुछ लोग कह रहे हैं तुम मत आओ वह आ रहा है अभी उसके आने से पहले तुम आओगे , तो कुछ नहीं बदलेगा यहां-वहां न तुम में , न मुझमें , न किसी में तुम्हें आने से पहले देनी होगी परीक्षा    छोड़ना होगा उसका विरोध मानना और कहना होगा जो वह कहे , मनवाए तुम अभी मत आओ पहले नंबर उसका है टेस्ट पास करने का उसके लिए कुछ मौखिक सवाल- तैयार किए हैं हमने जब तुम्हारा टेस्ट लिया जाएगा तुम्हें नहीं मिलेंगे वैकल्पिक प्रश्न अनसोल्ड पेपर की सुविधा- अभ्यास के लिए वह आना चाहता है प्रथम हमने उसके लिए कर दिए हैं सारे इंतजाम माइनेस मार्किंग भी खत्‍म इसलिए तुम मत आओ अभी फेल हो जाओगे , परीक्षा में उसे लांघने के कारण तुम्हारा शुभेच्छु सिर्फ तुम्हारा.. । @ #धनेश कोठारी

भ्रष्‍टाचार, आदत और चलन

समूचा देश भ्रष्‍टाचार को लेकर आतंकित है , चाहता है कि भ्रष्‍टाचार खत्‍म हो जाए। मगर , सवाल यह कि भ्रष्‍टाचार आखिर खत्‍म कैसे होगा। क्‍या एक आदमी को चुन लेने से देश भ्रष्‍टाचार मुक्‍त हो जाएगा। हंसी आती है ऐसी सोच पर .....   16 वीं लोकसभा का चुनाव देखिए। इसमें प्रचार में हजारों करोड़ खपाए जा रहे हैं। निर्वाचन आयोग ने भी 70 लाख तक की छूट दे दी। क्‍या ये सब मेहनत की कमाई का पैसा है। क्‍या यह भ्रष्‍टाचार को प्रश्रय देने की पहली सीढ़ी नहीं। आखिर जो चंदे के नाम पर करोड़ों अरबों दे रहा है , क्‍या कल वह धंधे के आड़े आने वाली चीजों को मैनेज करने के लिए दबाव नहीं बनाएगा। क्‍या आपके वह अलां फलां नेताजी बताएंगे कि उन्‍हें मिलने वाला धन किन स्रोतों से आया है।  क्‍या आप उनसे यह सवाल पूछ सकेंगे , जब वह वोट मांगने आएं। क्‍या आप जानने के बाद उनसे सवाल करेंगे कि फलां घोटाले में उनका क्‍या हाथ था। दूसरा सवाल कि क्‍या आप अपने वाजिब हक के बाद भी रिश्‍वत देना या लेना छोड़ दोगे। क्‍या आप अपने हर काम को कानूनी तौर पर करने का मादा रखते हैं। क्‍या 30 से 40 प्रतिशत पर छूटने वाले ठेकों मे

हां.. तुम जीत जाओगे

हां..   निश्चित ही तुम जीत जाओगे क्योंकि तुम जानते हो जीतने का फन साम , दाम , दंड , भेद तुम्हें सिर्फ जीत चाहिए एक अदद कुर्सी के लिए जिसके जरिए साधे जाएंगे फिर वही साम , दाम , दंड , भेद जो महत्वाकांक्षा रही है तुम्हांरी घुटनों के बल उठने के दिन से अब दौड़ने लगे हो तुम , पूरे साम , दाम , दंड , भेद के साथ मगर , आखिरी सवाल कि क्यान यह साम , दाम , दंड , भेद केवल तुम्हारा अपने लिए होगा या कि उनके लिए भी , जो तुम्हारी जीत में सहभागी बनेंगे बरगलाए जाने के बाद... कापीराइट- धनेश कोठारी

बदलाव, अवसरवाद और भेडचाल

अवसरवाद नींव से लेकर शिखर तक दिख रहा है। वैचारिक अस्थिरता के कारण, नेता ही नहीं, पूर्व अफसर और अब तो आम आदमी भी विचलन का शिकार है। यह उक्ति कि 'जहां मिली तवा परात वहीं बिताई सारी रात' सटीक बैठ रही है। कल तक जिनसे नाक भौं सिकाड़ी जाती थी, उन्‍हीं की गलबहियां डाली जा रही हैं। छोड़ने से लेकर शामिल होने तक के उपक्रम चालू हैं। क्‍या इसे बदलाव की बयार का परिणाम कहेंगे, क्‍या वास्‍तव में ऐसे सभी सुजन अपने आसपास बिगड़ते माहौल को सुधारने के हामी हैं। क्‍या यही आखिरी मौका है, क्‍या उनके सामने विकल्‍प सीमित और आखिरी हैं... ऐसे ही कई सवाल... जिनके सीधे उत्‍तर तो शायद मिले, मगर, भेड़ों के झुंड जरुर दौड़ते दिख रहे हैं। पहले भी दौड़ते थे, और लग रहा है कि शाश्‍वत दौड़ते रहेंगे। शिक्षा और उच्‍च शिक्षा का भी उसपर शायद ही प्रभाव पड़े। लिहाजा, इस दौड़भाग के निहितार्थ भी समझे जाने चाहिए। यह आपाधापी स्‍वहित से आगे जाती नहीं दिखती। व्‍यक्तिवाद यहां भी हावी है, सूरज का ख्‍याल यहां भी बराबर रखा जा रहा है। ऐसे में यह दावा कि समाज, राज्‍य और देश बदलेगा, मिथ्‍या लगता है। लक्षित बदलाव वास्‍तविक बदला

गिरगिट, अपराधबोध और कानकट्टा

आज सुबह से ही बड़ा दु:खी रहा। कहीं जाहिर नहीं किया, लेकिन वह बात बार-बार मुझे उलझाती रही, कि क्‍या मुझसे गुनाह, पाप हुआ है। साथ ही मन को खुद ढांढ़स भी बंधा रहा था कि नहीं, पाप नहीं हुआ। अंजाने में कोई बात हो जाए तो व्‍यवहारिक तौर पर उसे गुनाह नहीं माना जाता है। कानूनी तौर पर जरुर इसे गैर इरादतन अपराध की श्रेणी में रखा जाता है। सो पसोपेस अब भी बाकी है। हुआ यह कि सुबह जब ड्यूटी जा रहा था, तो अपने घर के बाहर अचानक और अंजाने ही एक गिरगिट पैरों के तले रौंदा गया। उस पर पैर पड़ते ही क्रीच..क की आवाज से चौंक कर उछला, पीछे मुड़कर देखा तो गिरगिट परलोक सिधार चुका था। पहले क्रीच.. की आवाज पर मैंने समझा की कोई सूखी लकड़ी का दुकड़ा पैर के नीचे आया है। खैर ड्यूटी की देर हो रही थी, और गिरगिट मर चुका था। इसलिए आगे निकल पड़ा। लेकिन एक अंजाना अपराधबोध जो मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा था। अब तक जब लिख रहा हूं, तब भी मुझे डरा रहा है कि अंजाने ही सही गुनाह तो हुआ है। देखकर चलना चाहिए था। वह भी जमीन को देखकर, आसमान को नहीं। रह-रह कर पुराने लोगों के बोल भी याद आ रहे थे। जिनमें कहा जाता था कि यदि कभी कोई छिपकली

लो अब मान्‍यता भी खत्‍म

लो अब उक्रांद की राज्‍य स्‍तरीय राजनीतिक दल की मान्‍यता भी खत्‍म हो गई है। तो मान्‍यता खत्‍म होने के समय को लेकर क्‍या आपके जेहन में कुछ समझ आ रहा है। पहली बात कि बिल्लियों की लड़ाई को एक कारण माना जा सकता है। दूसरी अहम बात आप याद करें, जब दिवाकर जी मंत्री थे और चुनाव चिह्न को लेकर झगड़ा चल रहा था तो राज्‍य निर्वाचन आयोग ने उसे जब्‍त कर दिया था। और वह भी ऐन विधानसभा चुनाव से पहले। आया समझ में... ... नहीं न ...  अब लोकसभा चुनाव है तो निर्वाचन आयोग को याद आया कि उक्रांद को विस चुनाव में मान्‍यता के लायक मत नहीं मिले, उसका मत प्रतिशत कम था। सवाल कि विस चुनाव हुए दो साल हो चुके हैं, इससे पहले आयोग ने क्‍यों संज्ञान नहीं लिया... ऐन चुनाव के वक्‍त इस घोषणा का आशय क्‍या है.... कहीं यह राजनीति प्रेरित घोषणा तो नहीं... क्‍या उक्‍त दोनों निर्णयों को सत्‍तासीन दलों के प्रभाव में लिया गया फैसला तो नहीं हैं। लिहाजा, यदि उक्रांद का भ्रम और सत्‍ता के केंद्र के आसपास रहने की लोलुपता खत्‍म नहीं हुई हो तो स्‍पष्‍ट है कि उसका एजेंडा भी राज्‍य का हितैषी नहीं .....

हाइकू

खारु छौं न खरोळ भितर आग च कॉपीराइट- धनेश कोठारी

फूल चढ़ाने तक की देशभक्ति

आज शहीद ए आजम भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू का शहादत दिवस था। देश के अन्‍य शहरों, कस्‍बों की तरह मेरे शहर में भी जलसे हुए, श्रद्धांजलि की रस्‍में निभाई गई। बरसों से देख रहा हूं यही सब करतब। उनके द्वारा भी जो अखबारों क छपास से लेकर सोशल मीडिया के दरबारों तक नमन करने को मेहनत करते रहे, और कर रहे हैं। अधिकांश को नहीं मालूम कि भगत सिंह की शहादत का आशय क्‍या है। क्‍यों वह भगत सिंह या अन्‍य शहीदों को नमन कर रहे हैं। सब किसी मंदिर के आगे मत्‍था टेककर आगे बढ़ने तक सीमित नजर आते हैं। इनमें आजकल ऐसे लोग भी शामिल हो गए हैं, जिन्‍हें चुनाव के इनदिनों में अपने नेता भगत सिंह के अवतार नजर आते हैं। भले पूर्व तक उनके वंशज उन्‍हें आतंकवादी कह कर संबोधित भी करते रहे। युवा वर्ग भी देशा की व्‍यवस्‍थाओं को सुधारने के लिए किसी भगत सिंह के पुनर्जन्‍म की कल्‍पना करते हैं। कुछ को यह मालूम है कि भगत सिंह ने साथियों के साथ कोर्ट में बम डाला था। मगर वह यह नहीं बता पाते कि बम डाला क्‍यों था, आखिर उनका मकसद क्‍या था। इस दौरान हरबार यह भी दुहाई दी जाती है कि उनके बताए मार्ग पर चलकर देश को सुधारने में जुटें। मगर,

सर्ग दिदा

सर्ग दिदा पाणि पाणि हमरि विपदा तिन क्य जाणि रात रड़िन्‌ डांडा- कांठा दिन बौगिन्‌ हमरि गाणि उंदार दनकि आज- भोळ उकाळ खुणि खैंचा-ताणि बांजा पुंगड़ौं खौड़ कत्यार सेरौं मा टर्कदीन्‌ स्याणि झोंतू जुपलु त्वे ठड्योणा तेरा ध्यान मा त्‌ राजा राणि धनेश कोठारी कापीराइट सुरक्षित

घृणा, राजनीति और चहेते

आज एक राजनीतिक दल से जुड़े परिचित ने अपने स्‍मार्टफोन पर व्‍हाट्स अप से आई तस्‍वीर दिखाई। उनके नेता की गोद में बच्‍चे के रुप में एक दल की मुखिया दिखाई गई थी। तभी मेरे मुहं से तपाक से छूटा , अरे क्‍या वह कुंवारे ही बाप बन गए ... बेचारे परिचित कुछ नहीं कह सके। सब वाकया महिला दिवस पर आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान का है। तब मैंने मन में सोचा कि यही लोग हैं, जो यत्र नार्यस्‍तु पुज्‍यंते रमंते तत्र देवता का स्‍वांग   भरते हैं , और यही वह लोग हैं , जो नारियों का सम्‍मान इस रुप में भी करते हैं।  उस वक्‍त मेरा मन निश्चित ही घृणा से भर गया। मन में घृणा इसलिए भी हुई कि क्‍या राजनीतिक विरोधों के लिए हम अपनी मानवीय संवेदनाओं को भी तिलांजलि दे चुके है। हमारा हास्‍य भी इतना असामाजिक, अनैतिक और अमानवीय हो गया है। प्रचार का इतना निकृष्‍टतम स्‍वरुप, वह भी महिला दिवस पर .... और वह भी उनके द्वारा जो महिलाओं की सुरक्षा दुहाई देते हैं। दूसरों के महिलाओं के साथ किए गए कुकृत्‍यों को अंगुलियों पर गिनाते फिरते हैं। धिक्‍कार ऐसी राजनीति और उसके चहेतों पर .... ।   महोदय और आपके बिरादरान सुन रहे हैं न ....

कन्फ्यूजिंग प्रश्नों पर चाहूं रायशुमारी

      अपने भविष्य को लेकर आजकल बड़ा कन्फ्यूजिया गया हूं। निर्धारण नहीं कर पा रहा हूं , कौन सा मुखौटा लगाऊं। आम- आदमी ही बना रहूं , या आम और आदमी के फेविकोल जोड़ से ‘ खास ’ हो जाऊं। अतीत के कई वाकये मुझे पसोपेस में डाले हुए हैं। कुछ महीने पहले मेरी गली का पुराना ‘ चिंदी चोर ’ उर्फ ‘ छुटभैया ’ धंधे को सिक्योर करने की खातिर ‘ खास ’ बनना , दिखना और हो जाना चाहता था। एक ही सपना था उसका , कि बाय इलेक्शन या सेलेक्शन वह किसी भी सदन तक पहुंच जाए। फिर बतर्ज एजूकेशनल टूर हर महीने ‘ बैंकाक ’ जैसे स्वर्गों की यात्रा कर आए। मगर , कल जब वह नुक्कड़ पर ‘ सुट्टा ’ मारते मिला , तो बोला- दाज्यू अब तुम बताओ यह ‘ आम आदमी ’ बनना कैसा रहेगा ? मैं हतप्रभ। देखा उसे , तो उसमें साधारण आदमी से ज्यादा ‘ आप ’ वाला ‘ आदमी ’ बनने की ललक दिखी , सो कन्फ्यूजिया गया। इसलिए उसे जवाब देने की बजाए मैं ‘ मन-मोहन ’ हो गया। फिर सोचा क्यों न आपके साथ ही चैनलों की ‘ डिबेट ’ टाइप बकैती की जाए। बैठो , बात करते हैं , हम- तुम , इन कन्फ्यूजियाते प्रश्नों पर। आपसे रायशुमारी अहम है मेरे लिए। तब भी फलित न निकला तो एसएमएस , एफबी ,

बसंत

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लो फिर आ गया बसंत अपनी मुखड़ी में मौल्‍यार लेकर चाहता था मैं भी अन्‍वार बदले मेरी मेरे ढहते पाखों में जम जाएं कुछ पेड़ पलायन पर कस दे अपनी जड़ों की अंग्‍वाळ बुढ़ी झूर्रियों से छंट जाए उदासी दूर धार तक कहीं न दिखे बादल फटने के बाद का मंजर मगर बसंत को मेरी आशाओं से क्‍या उसे तो आना है कुछ प्रेमियों की खातिर दो- चार फूल देकर सराहना पाने के लिए इसलिए मत आओ बसंत मैं तो उदास हूं धनेश कोठारी कापीराइट सुरक्षित @2013

सिखै

सि हमरा बीच बजार दुकानि खोलि भैजी अर भुल्‍ला ब्‍वन्‍न सिखीगेन मि देळी भैर जैक भैजी अर भुल्‍ला व्‍वन्‍न मा सर्माणूं सिखीग्‍यों कापीराइट सुरक्षित 2010 मा मेरी लिखीं एक गढ़वळी कविता