राइट टू रिजैक्‍ट शुभ, मगर कितना.... ?

राइट टू रिजेक्‍ट स्‍वस्‍थ लोकतंत्र के लिए शुभ माना जा सकता है, मगर कितना? इस पर भी सोचा जाना चाहिए। खासकर इसलिए कि क्‍या अब तक नकारात्‍मक वोटों से संसद या विधानसभाओं में पहुंचने वाले इससे रुक पाएंगे। शायद जानकार मानेंगे कि उनका जवाब ना में ही होगा। कारण कुछ लोग जो पहले भी वोट नहीं देते थे, क्‍या वह देश की राजनीतिक व्‍यवस्‍था पर प्रश्‍नचिह्न नहीं था? हां अब इतना फर्क होगा कि नकारात्‍मक वोट की संख्‍या सार्वजनिक हो जाएगी। लेकिन फिर वही सवाल कि क्‍या इससे फायदा होगा?

मेरा मानना है कि राइट टू रिजेक्‍ट से बड़ा बदलाव आए या नहीं, लेकिन देश के शिक्षित वर्ग के रुझान का पता जरुर चल सकता है। कारण, देश में अब तक अनपढ़ों को किसी के भी पक्ष में बरगलाने में इसी वर्ग का सबसे बड़ा हाथ रहा है, और यही वर्ग चुनाव के बाद हरबार राजनीतिक प्रणाली, राजनेताओं, पार्टियों को बीच चौराहे बातों बातों में गालियां भी देता रहा है। सो साफ है कि अब उसे वोट के इस्‍तेमाल से पहले अपने चयन पर किंतु-परंतु के साथ मुहर लगानी होगी। वरना उसकी भूमिका, अंधभक्ति, स्‍वार्थ को भी सब जान जाएंगे।

हां एक बात अवश्‍य कही जा सकती है कि इससे निकलने वाली ध्‍वनि लोकतंत्र के कथित पहरुओं को भविष्‍य के लिए कोई कड़ा संदेश जरुर दे सकती है। और इससे राजनीतिक गलियारों में यदाकदा कोई साफ सुथरी छवि, ध्‍येय, निष्‍ठा वाला पहुंच सकता है। इस लिहाज से दीर्घकालीन योजनाओं की तरह राइट टू रिजेक्‍ट प्रणाली से भरोसा बांधा जा सकता है।

यह पहल एक और तरफ भी इशारा करती दिख रही है कि लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍थाओं के समय का पहिया घुमने लगा है। जो कि राइट टू रिजेक्‍ट से राइट टू रिकॉल और फिर निर्वाचन के लिए 50+1 के मानक तक पहुंच सकती है। जिससे धनबल, बाहुबल, उन्‍माद, भावनात्‍मक शोषण जैसी कुटील चालों का बल निकाल सकती है।

यहां आप से अनुरोध कि सफाई के इस अभियान पर अपनी प्रतिक्रिया तो दें ही, साथ ही उस शिक्षित (अनपढ़) वर्ग को भी समझाने का प्रयास करें। शायद यह हमारे लिए देशभक्ति जताने का एक अच्‍छा माध्‍यम बन जाए। जो देश के साथ ही हमारी, आने वालों की जिंदगियों को सुरक्षित और खुशहाल बना सके।

आलेख- धनेश कोठारी

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