आखिर कब तक बनेंगे दूसरों की ढाल

आखिर हम कब तक दूसरों के अतिरेक में घिरे रहेंगे, कभी किसी नेता के आभामंडल में, कभी किसी दल के, कभी किसी बाबा के, कभी किसी लोक कलाकार के....। कब समझेंगे कि हम जिसकी खातिर बहस मुबाहिसों में उलझे हैं, वह हमेशा अपने हितों से जुड़े सरोकारों से ही घिरा रहा है। कभी उसने किसी और को सहारा नहीं दिया। यहां तक कि यदि कभी उसके हित प्रभावित हुए तो बेहद चालकी भरे शब्‍दों के जरिए उसने अपनी भड़ास भी निकाली, तब हमने उसी अतिरेक के चलते उसे शाबासी दी, उसे ये रत्‍न वो रत्‍न तक से नवाज डाला। मैं नहीं कहता कि योगदान को नकारा जाना चाहिए, लेकिन क्‍या इसी बात पर हमें सब कुछ की छूट मिल जाती है।

कहावत भी है कि बरगद की छांव में कोई नहीं पनपता, सही है, और सही भी माना जाना चाहिए। मगर, मैं काफी दिनों से फेसबुक से लेकर अखबारों की सुर्खियों तक देख रहा हूं कि हर कोई कसीदे पढ़ रहा है, गणेश को दूध पिलाने के गर्व की तरह... तो कोई किसी को दुत्‍कार रहा है, जैसे गुनाह हो गया। हम बस, आभा और अतिरेक में घिरकर ढाल बनकर रह गए। जबकि, होना यह चाहिए था कि हम सच और झूठ को छनने देते। जिससे हम 'भेड़' होने की तोहमत से बच जाते।

एक ने कहा वह चिराग है, दूसरे ने उसे थोड़ा रगड़ा, फिर किसी ने और रगड़ा, और यह बहस की रगड़न चलती चली गई। सवाल होने भी चाहिए, तो जवाब भी आने चाहिए। मगर, सही और वाजिब छोर से। बताया जाना चाहिए कि सवालों और उनके पीछे का सच क्‍या है, वह कौन है।

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