भाषाई विरासत को बचाना बड़ी चुनौती
धाद : लोकभाषा एकांश द्वारा आयोजित ”आखिर कैसे बचेंगी लोकभाषाएं ” व्याख्यान माला-4 समाज और सरकार दोनों स्तरों पर उत्तराखंड की लोकभाषाओं की निरन्तर अनदेखी होती रही है जिसका नतीजा है के कुमाऊंनी और गढ़वाली दोनों भाषाएं अपने मूल से कटने लगी हैं। मौजूदा वक्त में भाषायी विरासत को बचाये रखना एक बड़ी चुनौती है। ये बातें सामने आईं देहरादून में हुए एक संगोष्ठी में। अन्तर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर धाद : लोकभाषा एकांश की ओर से “आखिर कैसे बचेंगी लोक भाषाएं ” व्याख्यान माला – 4 के तहत ये आयोजन किया गया था। प्राथमिक शिक्षा में लोक भाषाओं की प्रासंगिता' विषय पर ये संगोष्ठी राजेश्वर नगर सामुदायिक केंद्र , सहस्रधारा रोड में आयोजित की गई थी। हिमालयी लोकभाषाओं पर शोधकर्ता डाo कमला पन्त ने मुख्य वक्ता के रूप में कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा कि हमारी लोकभाषाओं में कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जो अन्य भाषाओं में नहीं हैं | आज के वैश्विकरण के दबाव में इन भाषाओं पर मंडरा रहे खतरे के प्रति हमें सजग होकर अपनी मातृभाषाओं के विकास के लिये इस रचनात्मक आन्दोलन को आगे बढ़ाना चाहिए |