उफ ! ये बेशर्मी

 प्रदेश का लोकायुक्त कानून भाजपा के मुख्यमंत्री भुवन चन्द्र खण्डूडी के गले की फाँस बनता जा रहा है। लोकायुक्त विधेयक बनाने और उसे विधानसभा में पारित करवाने के बाद प्रदेश सरकार और उसके मुखिया भुवन चन्द्र खण्डूड़ी ने इस बात का जोर-शोर से प्रचार किया कि अब राज्य का कोई भी नागरिक प्रदेश के मुख्यमंत्री, मंत्रियों और विधायकों के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत लोकायुक्त से कर सकेगा और लोकायुक्त स्वतंत्र रूप से जाँच कर भ्रष्टाचार में लिप्त मुख्यमंत्री, मंत्री और विधायकों को सजा दे सकेंगे। लोकायुक्त विधेयक पर छीछालेदारी होने  लगी तो मुख्यमंत्री खण्डूड़ी को विधानसभा चुनाव का अपना ब्रह्मास्त्र हाथ से जाता दिखाई देने लगा तो उन्होंने मीडिया के माध्यम से लोकायुक्त विधेयक के प्रावधानों को लेकर झूठ बोलना शुरू कर दिया और विपक्ष पर यह तक आरोप लगा डाले कि वे लोग बिना विधेयक को पढ़े ही उसका विरोध कर रहे हैं। नई दिल्ली में 6 दिसम्बर 2011 को पत्रकारों से बातचीत में मुख्यमंत्री खण्डूड़ी ने यह तक कह डाला कि मुख्यमंत्री के विरुद्ध कार्रवाई के मामले में लोकायुक्त पूरी तरह से सक्षम, समर्थ और स्वतंत्र होगा। किसी मुख्यमंत्री के पक्षपात, मदद या बचाने का कोई प्रावधान विधेयक में नहीं है। मुख्यमंत्री, मंत्रियों तथा विधायकों के विरुद्ध लोकायुक्त की कार्रवाई में पीठ के सभी सदस्यों के सहमत होने, वोटिंग और सर्वसम्मति जैसी कोई शर्त कहीं नहीं रखी गई है। लोकायुक्त व पीठ की नियुक्तियाँ राष्ट्रीय स्तर पर साफ छवि वाले लोगों की सर्च कमेटी द्वारा की जाएगी। लोकायुक्त के अध्यक्ष और पीठ के सदस्यों की नियुक्ति में मुख्यमंत्री या प्रदेश सरकार की कोई भूमिका नहीं होगी।
यहीं पर लोकायुक्त विधेयक को लेकर मुख्यमंत्री खण्डूड़ी का झूठ सामने आता है। विधेयक के अध्याय छह धारा-18 में ‘उच्च कृत्यकारियों के विरुद्ध अन्वेषण और अभियोजन’ के अन्तर्गत स्पष्ट लिखा गया है कि मुख्यमंत्री, मंत्री परिषद के कोई अन्य सदस्य और उत्तराखण्ड विधानसभा के किसी सदस्य के विरुद्ध कोई अन्वेषण या अभियोजन लोकायुक्त के सभी सदस्यों की अध्यक्ष के साथ पीठ से अनुमति प्राप्त किए बिना प्रारम्भ नहीं की जायेगी।’ अब प्रावधान का अर्थ लोकायुक्त के अध्यक्ष और पूरी पीठ के सर्व सम्मत होने से नहीं है तो और क्या है। मुख्यमंत्री जी? लगता है आपने ही अपने लोकायुक्त विधेयक को ठीक से नहीं पढ़ा है। आपने केवल इतना ही पढ़ा है कि लोकायुक्त विधेयक के दायरे में मुख्यमंत्री और विधायकों को भी शामिल कर लिया गया है। अन्यथा आप विधेयक की कमजोरियाँ गिनाने वालों को यह नहीं कहते कि उन्होंने विधेयक नहीं पढ़ा है।
विधेयक के बारे में मुख्यमंत्री ने एक और झूठ बोला है कि लोकायुक्त और पीठ के सदस्यों की नियुक्ति में मुख्यमंत्री और राज्य सरकार की कोई भूमिका किसी भी रूप में नहीं होगी, जबकि विधेयक के धारा-4 अध्याय-2 में ‘लोकायुक्त की स्थापना’ में धारा 4 (6) में स्पष्ट लिखा गया है कि लोकायुक्त के अध्यक्ष और सदस्य की नियुक्ति चयन समिति की संस्तुति पर राज्यपाल द्वारा की जाएगी। धारा-4 (9-एक) में स्पष्ट लिखा गया है कि उत्तराखण्ड का मुख्यमंत्री चयन समिति का अध्यक्ष होगा और नेता प्रतिपक्ष सहित 6 सदस्य होंगे। अन्य पाँच सदस्यों में दो उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय के दो न्यायाधीश, एक पूर्व लोकायुक्त और दो सर्वोच्च न्यायालय और दूसरी संस्थाओं से चुने जाएँगे। इस तरह देखें तो चयन समिति के बाकी 5 सदस्यों का चुनाव भी प्रदेश सरकार ही करेगी। और जब पूरी चयन समिति के निर्धारण में प्रदेश के मुख्यमंत्री की महत्वपूर्ण भूमिका है तो लोकायुक्त के चयन में कैसे राजनीति नहीं होगी? ऐसा लोकायुक्त कैसे मुख्यमत्री, मंत्री और विधायकों के खिलाफ कारगर कार्यवाही कर पाएगा जो पूरी तरह से राजनैतिक लाभ-हानि को देखकर चुना गया हो? खण्डूड़ी जी! अब जब कानून में कमियाँ हैं तो उसे स्वीकार करने में कोई हर्ज है क्या?
लेखक जगमोहन रौतेला उत्तराखण्ड के वरिष्ठ पत्रकार हैं.


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