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Showing posts from December, 2011

लोकसभा मा क्य काम-काज हूंद भै ?

(Garhwali Satire, Garhwal Humorous essays, Satire in Uttarakahndi Languages, Himalayan Languages Satire and Humour ) अच्काल पार्लियामेंट मा रोज इथगा हंगामा/घ्याळ होंद बल लोकसभा या राज्यसभा खुल्दा नीन अर दुसर दिनों बान मुल्तबी/ 'ऐडजौर्नड फॉर द डे' करे जान्दन. बस याँ से पारिलियामेंट सदस्य बिसरी गेन, भूलिगेन की लोकसभा या राज्यसभा मा काम काज क्य हूंद ? एम् पीयूँ तैं अब पता इ नी च बल लोक सभा या राज्य सभा सदस्यों मा क्वी कम बि होंद. अब सी पर्स्या की त बात च. परसी मि अपुण एम्.पी (राज्य सभा सदस्य) दगड्या कु इख ग्यों बल मि बि ज़रा पार्लियामेंट देखूं अर उख क्य क्य होणु च वांको जायजा बि ल्हीयूँ. अब जन कि मेरो दगड्या बिना बातौ अहिंसक मनिख च वै तैं कमांडो की सेक्युरिटी त छ्वाड़ो एमपी हाउस कुणि एक चौकीदार बि नि मील. म्यार दगडया एमपी न बीस पचीस माख मारिन, दस पन्दरा मूस पकड़ीन अर पिंजरा मा बन्द कौरिन अर औथेरिटयूँ तैं बि दिखाई तबी बि मेरो दगडया तैं जेड त छ्वाड़ो ए सेक्युरिटी बि नि मील उलटां एक चौकीदार छौ वै तैं बि के हैंक नगर पालिका सेवक को इख भेजी दे. त मै तैं दगड्या एमपी क इख जाण मा क

क्य मि बुढे गयों ?

फिर बि मै इन लगद मि बुढे गयों! ना ना मि अबि बि दु दु सीढ़ी फळआंग लगैक चढदु. कुद्दी मारण मा अबि बि मिंडक में से जळदा छन. फाळ मारण मा मि बांदरूं से कम नि छौं. काची मुंगरी मि अबि बि बुकै जान्दो अर रिक अपण नै साखी/न्यू जनिरेशन तैं बथान्दन बल काची मुंगरी कन बुकाण सिखणाइ त भीसम मांगन सीखो. कुखड़, मुर्गा हर समय खाण मा म्यार दगड क्या सकासौरी कारल धौं! बल्द जन बुसुड़ बिटेन भैर नि आण चांदो मि रुस्वड़ मा इ सेंदु जां से टैम कुटैम खाणो इ रौं. दंत ! बाघ का या कुत्ता का इन पैना दांत नि ह्वाल जन म्यार छन. इना गिच मा रान म्यार दान्तुं बीच मा आई ना कि रान को बुगचा बौणि जांद. अचकालौ जवान लौड़ उसयाँ खण/खाजा बि बुकावन त ऊँ तैं कचै, डीसेंटरी ह्व़े जांद. अर मि अबि बि अध्भड़यीं लुतकी, अध्काचू अंदड़-पिंदड़ पचै जांदू. म्यार अंदड़ अर जंदरौ पाट भै भुला लगदन. पण फिर बि मै इन लगद मि बुढे गयों! अब द्याखो ना जख पैलि लोग मै से मिल्दा था त हाई! हेल्लो! हाउ डू यू डू? कैरिक सिवा बर्जद छया अच्काल जब बिटेन मि रिटायर होंऊ त लोग बाग़ हाथ मिलाणो जगा पर म्यार खुटुन्द सिवा लगौन्दन. ज्वान, अध् बुधेड़ जनानी खुटुन्द सिवा लगा

गढवाली में गढवाली भाषा सम्बन्धी साहित्य

गढवाली में गढ़वाली भाषा, साहित्य सम्बन्धी लेख भी प्रचुर मात्र में मिलते हैं. इस विषय में कुछ मुख्य लेख इस प्रकार हैं- गढवाली साहित्य की भूमिका पुस्तक : आचार्य गोपेश्वर कोठियाल के सम्पादकत्व में गढवाली साहित्य की भूमिका पुस्तक १९५४ में प्रकाशित हुई जो गढवाली भाषा साहित्य की जाँच पड़ताल की प्रथम पुस्तक है. इस पुस्तक में भगवती प्रसाद पांथरी, भगवती प्रसाद चंदोला, हरिदत्त भट्ट शैलेश, आचार्य गोपेश्वर कोठियाल, राधाकृष्ण शाश्त्री, श्यामचंद लाल नेगी, दामोदर थपलियाल के निबंध प्रकाशित हुए. डा विनय डबराल के गढ़वाली साहित्यकार पुस्तक में रमाप्रसाद घिल्डियाल, श्यामचंद नेगी, चक्रधर बहुगुणा के भाषा सम्बन्धी लेखों का भी उल्लेख है. अबोधबंधु बहुगुणा, डा नन्द किशोर ढौंडियाल व भीष्म कुकरेती ने कई लेख भाषा साहित्य पर प्रकाशित किये हैं जो समालोचनात्मक लेख हैं (देखें भीष्म कुकरेती व अबोधबन्धु बहुगुणा का साक्षात्कार, चिट्ठी पतरी २००५, इसके अतिरिक्त भीष्म कुकरेती, नन्दकिशोर ढौंडियाल व वीरेंद्र पंवार के रंत रैबार, खबरसार आदि में लेख). दस सालै खबरसार (२००९) पुस्तक में भजनसिंह सिंह, शिवराज सिंह निसंग, सत्यप्

भाषा संबंधी ऐतिहासिक वाद-विवाद के सार्थक सम्वाद

गढवाली भाषा में भाषा सम्बन्धी वाद-विवाद गढवाली भाषा हेतु विटामिन का काम करने वाले हैं. जब भीष्म कुकरेती के 'गढ़ ऐना (मार्च १९९०), में 'गढवाली साहित्यकारुं तैं फ्यूचरेस्टिक साहित्य' लिखण चएंद' जैसे लेख प्रकाशित हुए तो अबोधबंधु बहुगुणा का प्रतिक्रिया सहित मौलिक लिखाण सम्बन्धी कतोळ-पतोळ' लेख गढ़ ऐना (अप्रैल १९९०) में प्रकाशित हुआ व यह सिलसिला लम्बा चला. भाषा सम्बन्धी कई सवाल भीष्म कुकरेती के लेख 'बौगुणा सवाल त उख्मी च' गढ़ ऐना मई १९९०), बहुगुणा के लेख 'खुत अर खपत' (गढ़ऐना, जूंन १९९० ), भीष्म कुकरेती का लेख 'बहुगुणाश्री ई त सियाँ छन' (गढ़ ऐना, १९९०) व 'बहुगुणाश्री बात या बि त च' व बहुगुणा का लेख 'गाड का हाल' (सभी गढ़ ऐना १९९०) गढवाली समालोचना इतिहास के मोती हैं. इस लेखों में गढवाली साहित्य के वर्तमान व भविष्य, गढवाली साहित्य में पाठकों के प्रति साहित्यकारों की जुमेवारियां, साहित्य में साहित्य वितरण की अहमियत, साहित्य कैसा हो जैसे ज्वलंत विषयों पर गहन विचार हुए. कवि व समालोचक वीरेन्द्र पंवार के एक वाक्य 'गढवाली न मै क्या दे

मानकीकरण पर आलोचनात्मक लेख

मानकीकरण गढवाली भाषा हेतु एक चुनौतीपूर्ण कार्य है और मानकीकरण पर बहस होना लाजमी है. मानकीकरण के अतिरिक्त गढवाली में हिंदी का अन्वश्य्क प्रयोग भी अति चिंता का विषय रहा है जिस पर आज भी सार्थक बहस हो रहीं हैं. रिकोर्ड या भीष्म कुकरेती की जानकारी अनुसार, गढवाली में मानकीकरण पर लेख भीष्म कुकरेती ने 'बीं बरोबर गढवाली' धाद १९८८, अबोधबंधु बहुगुणा का लेख 'भाषा मानकीकरण कि भूमिका' (धाद, जनवरी , १९८९ ) में छापे थे. जहां भीष्म कुकरेती ने लेखकों का ध्यान इस ओर खींचा कि गढवाली साहित्य गद्य में लेखक अनावश्यक रूप से हिंदी का प्रयोग कर रहे हैं. वहीं अबोधबंधु बहुगुणा ने भाषा मानकीकरण के भूमिका (धाद, १९८९) गढवाली म लेखकों द्वारा स्वमेव मानकीकरण पर जोर देने सम्बन्धित लेख है. तभी भीष्म कुकरेती के सम्वाद शैली में प्रयोगात्त्मक व्यंगात्मक लेख 'च छ थौ' (धाद, जलाई, १९९९, जो मानकीकरण पर चोट करता है) इस लेख के बारे में डा अनिल डबराल लिखता है सामयिक दृष्टि से इस लेख ने भाषा के सम्बन्ध में विवाद को तीव्र कर दिया था. "इसी तरह भीष्म कुकरेती का एक तीखा लेख 'असली नकली गढ़वाळी'

वीरेन्द्र पंवार की गढवाली भाषा में समीक्षाएं

वीरेन्द्र पंवार गढवाली समालोचना का महान स्तम्भ है. पंवार के बिना गढवाली समालोचना के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता है. पंवार ने अपनी एक शैली परिमार्जित की है जो गढवाली आलोचना को भाती भी है क्योंकि आम समालोचनात्मक मुहावरों के अतिरिक्त पंवार गढ़वाली मुहावरों को आलोचना में भी प्रयोग करने में दीक्षित हैं. वीरेंद्र पंवार की पुस्तक समीक्षा का संक्षिप्त ब्यौरा इस प्रकार है आवाज- खबरसार (२००२) लग्याँ छंवां - खबरसार (२००४) दुन्‍या तरफ पीठ - खबरसार (२००५) केर- खबसार (२००५) घंगतोळ - खबरसार (२००८) टुप-टप - खबरसार (२००८) कुल़ा पिचकारी - खबरसार (२००८) कुल़ा पिचकारी - खबरसार (२००८) डा. आशाराम - खबरसार (२००८) अडोस पड़ोस - खबरसार (२००९) मेरी पूफू - खबरसार (२००९) दीवा दैणि ह्वेन - खबरसार (२०१०) खबर सार दस साल की - खबरसार (२०१०) ज्यूँदाळ - खबरसार (२०११) पाणी' - खबरसार (२०११) गढवाली भाषा के शब्द संपदा - खबरसार (२०११) सब्बी मिलिक रौंला हम - खबरसार (२०११) आस - रंत रैबार (२०११) फूल संगरांद - खबरसार (२०११) चिट्ठी पतरी विशेषांक - खबरसार (२०११) द्वी आखर - खबरसार (२०११) ललित मोहन कोठिया

गढवाली भाषा में पुस्तक समीक्षायें

ऐसा लगता है कि गढवाली भाषा की पुस्तकों की समीक्षा/समालोचना सं. १९८५ तक बिलकुल ही नही था, कारण गढवाली भाषा में पत्र-पत्रिकाओं का ना होना. यही कारण है कि अबोधबंधु बहुगुणा ने 'गाड म्यटेकि गंगा (१९७५) व डा अनिल डबराल ने 'गढवाली गद्य की परम्परा : इतिहास से आज तक' (२००७) में १९९० तक के गद्य इतिहास में दोनों विद्वानों ने समालोचना को कहीं भी स्थान नहीं दिया. इस लेख के लेखक ने धाद के सर्वेसर्वा लोकेश नवानी को भी सम्पर्क किया तो लोकेश ने कहा कि धाद प्रकाशन समय (१९९० तक) में भी गढवाली भाषा में पुस्तक समीक्षा का जन्म नहीं हुआ था. (सम्पर्क ४ दिसम्बर २०११, साँय १८.४२) भीष्म कुकरेती की 'बाजूबंद काव्य (मालचंद रमोला) पर समीक्षा गढ़ऐना (फरवरी १९९०) में प्रकाशित हुयी तो भीष्म कुकरेती द्वारा पुस्तक में कीमत न होने पर समीक्षा में/व्यंग्य चित्र में फोकटिया गढवाली पाठकों की मजाक उड़ाने पर अबोधबंधु बहुगुणा ने सख्त शब्दों में ऐतराज जताया (देखे गढ़ ऐना २७ अप्रि, १९९०, २२ मई १९९० अथवा एक कौंळी किरण, २०००). जब की मालचन्द्र रमोला ने लिखा की भीष्म की यह टिपणी सरासर सच्च है. भीष्म कुकरेती ने गढ़ ऐ

पहाड़ के उजड़ते गाँव का सवाल विकास की चुनौतियाँ और संभावनाएं

उत्तराखंड की लगभग 70 प्रतिशत आबादी गाँव मैं निवास करती है 2011 की जनगणना के अनुसार हमारे देश मैं लगभग 6 लाख 41 हजार गाँव हैं उत्तराखंड मैं भी लगभग 16826 गाँव हैं लेकिन पहाड़ो का शायद ही कोई ऐसा गाँव होगा जिसमे 40 प्रतिशत से कम पलायन हुआ होगा पहाड़ के खासकर उत्तराखंड हिमालय मैं औपनिवेशिक काल से ही पलायन झेल रहे हैं इसलिए गाँव का कम से कम इतना उत्पादक होना जरुरी हैं की वहां के निवासी वहां रहकर अपना भरण पोषण करने के अलावा अपनी जरूरतें आराम से पूरी कर सकें लेकिन ज्यादातर पहाड़ अनुत्पादकता के संकट से जूझ रहे हैं जबकि कहा जाता है की पहाड़ (विशेषतः हिमालयी )संसाधनिक दृष्टि से अत्यंत समृद्ध हैं परन्तु विरोधाभास ये है की राज्य बनने के इतनी वर्षों बाद भी गाँव से पलायन नहीं रुका और यहाँ के गाँव की लगभग आधी आबादी रोजी-रोटी की तलाश मैं प्रवास कर रही है स्पष्ट है की गाँव का उत्पादन तंत्र कमजोर है अर्थशास्त्र की किताब मैं पहाड़ के गाँव का अर्थशास्त्र सदियों से एक जटिल चुनौती भरा और अनुत्तरित प्रश्न रहा है हम उसके बारे मैं सोच पाना तो दूर उसे लेकर घबराते रहे हैं और आज भी कमोबेश हमारी अर्थव्यवस्था ल

रचना संग्रहों में भूमिका लेखन

पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित समीक्षा का जीवनकाल बहुत कम रहता है और फिर पत्र पत्रिकाओं के वितरण समस्या व रख रखाव के समस्या के कारण पत्र-पत्रिकाओं में छपी समीक्षाएं साहित्य इतिहासकारों के पास उपलब्ध नही होती हैं. अत: समीक्षा के इतिहास हेतु साहित्यिक इतिहासकारों को रचनाओं की भूमिका पर अधिक निर्भर करना होता है. नागराजा महाकाव्य (कन्हैयालाल डंडरियाल, १९७७ व २००४ पाँच खंड) की भूमिका १९७७ में डा गोविन्द चातक ने कवि के भावपक्ष, विषयपक्ष व शैलीपक्षों का विश्लेष्ण विद्वतापूर्ण किया, तो २००४ में नत्थीलाल सुयाल ने डंडरियाल के असलियतवादी पक्ष की जांच पड़ताल की. पार्वती उपन्यास (ल़े.डा महावीर प्रसाद गैरोला, १९८०) गढवाली के प्रथम उपन्यास की भूमिका कैप्टेन शूरवीर सिंह पंवार ने लिखी जिसमे पंवार ने गढवाली शब्द भण्डार व गढवाली साहित्य विकाश के कई पक्षों की विवेचना की है. कपाळी की छ्मोट (कवि: महावीर गैरोला १९८०) कविता संग्रह की भूमिका में मनोहरलाल उनियाल ने गैरोला की दार्शनिकता, कवि के सकारात्मक पक्ष उदाहरणों सहित पाठकों के सामने रखा. शैलवाणी (सम्पादक अबोधबंधु बहुगुणा १९८१): 'शैलवाणी' विभिन्

गढवाली भाषा में समालोचना/आलोचना/समीक्षा साहित्य

(गढवाली अकथात्मक गद्य-३) (Criticism in Garhwali Literature) यद्यपि आधिनिक गढवाली साहित्य उन्नीसवीं सदी के अंत व बीसवीं सदी के प्रथम वर्षों में प्रारम्भ हो चूका था और आलोचना भी शुरू हो गयी थी. किन्तु आलोचना का माध्यम कई दशाब्दी तक हिंदी ही रहा. यही कारण है कि गढवाली कवितावली सरीखे कवि संग्रह (१९३२) में कविता पक्ष, कविओं की जीवनी व साहित्यकला पक्ष पर टिप्पणी हिंदी में ही थी. गढवाली सम्बन्धित भाषा विज्ञानं व अन्य भाषाई अन्वेषणात्मक, गवेषणात्मक साहित्य भी हिंदी में ही लिखा गया. वास्तव में गढवाली भाषा में समालोचना साहित्य की शुरुवात 'गढवाली साहित्य की भूमिका (१९५४) पुस्तक से हुयी. फिर बहुत अंतराल के पश्चात १९७५ से गाड म्यटेकि गंगा के प्रकाशन से ही गढवाली में गढवाली साहित्य हेतु लिखने का प्रचलन अधिक बढ़ा. यहाँ तक कि १९७५ से पहले प्रकाशित साहित्य पुस्तकों की भूमिका भी हिंदी में ही लिखीं गईं हैं. देर से ही सही गढवाली आलोचना का प्रसार बढ़ा और यह कह सकते हैं कि १९७५ ई. से गढवाली साहित्य में आलोचना विधा का विकास मार्ग प्रशंसनीय है. भीष्म कुकरेती के शैलवाणी वार्षिक ग्रन्थ (२०११-२०१२)

पहाड़ के उजड़ते गाँव का सवाल विकास की चुनौतियाँ और संभावनाएं

उत्तराखंड की लगभग 70 प्रतिशत आबादी गाँव मैं निवास करती है 2011 की जनगणना के अनुसार हमारे देश मैं लगभग 6 लाख 41 हजार गाँव हैं उत्तराखंड मैं भी लगभग 16826 गाँव हैं लेकिन पहाड़ो का शायद ही कोई ऐसा गाँव होगा जिसमे 40 प्रतिशत से कम पलायन हुआ होगा पहाड़ के खासकर उत्तराखंड हिमालय मैं औपनिवेशिक काल से ही पलायन झेल रहे हैं इसलिए गाँव का कम से कम इतना उत्पादक होना जरुरी हैं की वहां के निवासी वहां रहकर अपना भरण पोषण करने के अलावा अपनी जरूरतें आराम से पूरी कर सकें लेकिन ज्यादातर पहाड़ अनुत्पादकता के संकट से जूझ रहे हैं जबकि कहा जाता है की पहाड़ (विशेषतः हिमालयी )संसाधनिक दृष्टि से अत्यंत समृद्ध हैं परन्तु विरोधाभास ये है की राज्य बनने के इतनी वर्षों बाद भी गाँव से पलायन नहीं रुका और यहाँ के गाँव की लगभग आधी आबादी रोजी-रोटी की तलाश मैं प्रवास कर रही है स्पष्ट है की गाँव का उत्पादन तंत्र कमजोर है अर्थशास्त्र की किताब मैं पहाड़ के गाँव का अर्थशास्त्र सदियों से एक जटिल चुनौती भरा और अनुत्तरित प्रश्न रहा है हम उसके बारे मैं सोच पाना तो दूर उसे लेकर घबराते रहे हैं और आज भी कमोबेश हमारी अर्थव्यवस्था लग

गढवाली भाषा साहित्य में साक्षात्कार की परम्परा

Intervies in garhwali Literature (गढवाली गद्य -भाग ३) साक्षात्कार किसी भी भाषा साहित्य में एक महत्वपूर्ण विधा और अभिवक्ति की एक विधा है. साक्षात्कार कर्ता या कर्त्री के प्रश्नों के अलावा साक्षात्कार देने वाले व्यक्ति के उत्तर भी साहित्य हेतु या विषय हेतु महत्वूर्ण होते है. अंत में साक्षात्कार का असली उद्देश्य पाठकों को साक्षात्कारदाता से तादात्म्य कराना ही है, प्रसिद्ध व्यक्ति विशेष की विशेष बात पाठकों तक पंहुचाना होता है. अत: साहित्यिक साक्षात्कार समीक्षा में यह देखा जाता है कि साक्षात्कार से उदेश्य प्राप्ति होती है कि नही. गढवाली भाषा में पत्र पत्रिकाओं की कमी होने साक्षात्कार का प्रचलन वास्तव में बहुत देर से हुआ. यही कारण है कि गढवाली भाषा में प्रथम लेख 'गढवाली गद्य का क्रमिक विकास (गाड म्यटेकि गंगा - सम्पादक अबोधबंधु बहुगुणा, १९७५) में कोई साक्षात्कार नहीं मिलता और डा. अनिल डबराल ने अपनी अन्वेषणा गवेषणात्मक पुस्तक 'गढवाली गद्य की परम्परा : इतिहास से वर्तमान तक (२००७) में केवल चार भेंटवार्ताओं का जिक्र किया है. गढ़वाली में साक्षात्कार दो प्रकार का है : १- किसी विशेष व

आधुनिक गढवाली भाषा कहानियों की विशेषतायें और कथाकार

(Characteristics of Modern Garhwali Fiction and its Story Tellers) कथा कहना और कथा सुनना मनुष्य का एक अभिन्न मानवीय गुण है. कथा वर्णन करने का सरल व समझाने की सुन्दर कला है अथवा कथा प्रस्तुतीकरण का एक अबूझ नमूना है यही कारण है कि प्रत्येक बोली-भाषा में लोककथा एक आवश्यक विधा है. गढ़वाल में भी प्राचीन काल से ही लोक कथाओं का एक सशक्त भण्डार पाया जाता है. गढ़वाल में हर चूल्हे का, हर जात का, हर परिवार का, हर गाँव का, हर पट्टी का अपना विशिष्ठ लोक कथा भण्डार है. जहाँ तक लिखित आधुनिक गढ़वाली कथा साहित्य का प्रश्न है यह प्रिंटिंग व्यवस्था सुधरने व शिक्षा के साथ ही विकसित हुआ. संपादकाचार्य विश्वम्बर दत्त चंदोला के अनुसार गढ़वाली गद्य की शुरुवात बाइबल की कथाओं के अनुवाद (१८२० ई. के करीब) से हुयी (सन्दर्भ: गाड मटयेकि गंगा १९७५). गढ़वालियों में सर्वप्रथम डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर पद प्राप्तकर्ता गोविन्द प्रसाद घिल्डियाल ने (उन्नीसवीं सदी के अंत में) हितोपदेश कि कथाओं का अनुवाद पुस्तक छापी थी (सन्दर्भ :गाड म्यटेकि गंगा). आधुनिक गढ़वाली कहानियों के सदानंद कुकरेती आधुनिक गढ़वाली कथाओं के जन्म दाता विश