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Showing posts from March, 2011

जायें तो जायें कहां

जिस जंगल के रिश्ते से आदि - मानव अपनी गाथा लिखते आया है , वो जंगल आज उदास है . उसके अपने ही रैन - बसेरे से आज वन्य - जीव आबादी की ओर तेजी से रुख करने लगे हैं . वो खाली है , दरसल उसने हमसे जितना लिया उससे ज्यादा हमें लौटा दिया . लेन - देन के इस रिश्ते में हम आज उसे धोखा दिये जा रहे है , हमें आज भी उससे सब कुछ की उम्मीद है लेकिन हाशिल जब हमने ही सिफ़र कर दिया हो तो जंगल बेचारा क्या करे -? हाथी हो या गुलदार वो जंगल से निकल कर आबादी की ओर क्यों बढ रहा है , ये एक बडा सवाल है . और अब ये सवाल बेहद जज्बाती और जरुरी भी हो गया है कि हम सोचे कि इतने बडे तंत्र के बावजूद हम कहां चूक कर रहे है ? पिछ्ले पखवाडे हाथी और गुलदार के आतंक की खबरें सुर्खियों में रहीं . हाथी सडक पर आदमी को पांव से कुचल रहा है तो गुलदार शाम ढलते ही बच्चों को निवाला बना रहा है . लेकिन ये उसकी चूक और भूख हो सकती है , जब जंगल मे पानी और चारा नहीं रहेगा तो ये कह

बदलौअ

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जंगळ् बाघूं कु अब जंगळ् ह्वेगेन जब बिटि जंगळ् हम खुणि पर्यटक स्थल ह्वेगेन बंदुक लेक हम जंगळ् गयां बाग/गौं मा ऐगे हम घ्वीड़-काखड़ मारिक लयां त वु/दुधेळ् नौन्याळ् लिगे वेन् कबि हमरु नौ नि धर्रि हमुन त वे मनस्वाग बांचि बाबु-दादै जागिर कु हक त सोरा-भारों मा बटेंद हम त वेका सोरा-भारा बि नि वेका हक पर हमरि धाकना किलै जब बि कखि ओडा सर्कयेंदन् लुछेंदि आजादी त जल्मदू वर्ग संघर्ष हमरि देल्यों मा बाघै घात वर्ग संघर्ष से उपज्यूं बस्स हमरु ही स्वाळ्-द्वारु च सौजन्य-- ज्यूंदाळ (गढ़वाली कविता सग्रह) Copyright@ Dhanesh Kothari

‘लोक’ संग ‘पॉप’ का फ्यूजन अंदाज है ‘हे रमिए’

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इसे लोकगीतों की ही तासीर कहेंगे कि उन्हें जब भी सुना/गुनगुनाया जाय वे भरपूर ताजगी का अहसास कराते हैं। इसलिए भी कि वे हमारे मर्म, प्रेम द्वन्द और खुशी से उपजते हैं। युवा गायक रजनीकांत सेमवाल ने बाजार के रूझान से बेपरवाह होकर विस्मृति की हद तक पहुंचे ‘लोक’ को आवाज दी है। जिसका परिणाम है उनकी ‘टिकुलिया मामा’ व ‘हे रमिए’ संकलन। जिनमें हमारा ही समाज अपने ‘पहाड़ीपन’ की बेलाग पहचान के साथ गहरे तक जुड़ा हुआ है। रामा कैसेटस् की हालिया प्रस्तुति ‘हे रमिए’ में रजनीकांत सेमवाल लोकजीवन के भीतर तक पहुंचकर एक बार फिर लाते हैं ‘पोस्तु का छुम्मा’ को। जिसे दो दशक पहले हमने लोकगायक कमलनयन डबराल के स्वरों के साथ ठेठ जौनपुरी अंदाज में सुना था। रजनीकांत की आवाज में सुनने के बाद फर्क सिर्फ इतना है कि पहाड़ी संगीत ने इस अंतराल में अपने कलेवर व मिजाज दोनों को बदला है। मधु मंमगाई के साथ रांसो की बीट पर यह गीत आज भी पैरों में वही थिरकन पैदा कर जाता है। गीतकार राहुल सेमवाल व जगदीश शरण के उमदा शब्दांकन से सजे संकलन के शीर्षक गीत ‘हे रमिए’ वेस्टर्न पैटर्न में वायलियन व सैक्सोफोन के बेहतर प्रयोग के साथ

फुल सगरांद- गोविन्द फुलारी बाबा बौढ़ी जा घमै रे

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उदास न हो

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आज अबि उदास न हो भोळ त्‌ अबि औण च आस न तोड़ मन न झुरौ पाळान्‌ त्‌ उबौण ई च कॉपीराइट- धनेश कोठारी