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Showing posts from January, 2011
गैरसैंण जनता खुणि चुसणा च
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जब बिटेन उत्तराखंड अन्दोलनै पवाण लग अर राज्यौ राजधनी छ्वीं लगी होली त गैरसैंण कु इ नाम गणेंगे। गैरसैंण राजधानी त नि बौण सौक। पण, कथगों खुणि गैरसैंण भौत कुछ च। म्यार दिखण मा त हैंको जलम तक गैरसैंण सब्युं खुणि कुछ ना कुछ त रालों इ। उत्तराखंड क्रान्ति दलौ (उक्रांद) कुण त गैरसैंण बिजणै दवा च, दारु च, इंजेक्सन च। गैरसैंण उक्रान्दौ आँख उफर्ने पाणि छींटा च, गैरसैंण उक्रान्दौ की निंद बर्र से बिजाळणे बान कंडाल़ो झुप्पा च, घच्का च। कत्ति त बुल्दन बल गैरसैंण आईसीयू च। ज्यूंद रौणे एकी दवा च। गैरसैंण नामै या दवा नि ह्वाऊ त उक्रांद कि कै दिन डंड़ोळी सजी जांदी। गैरसैंण उक्राँदै खुणि कृत्रिम सांसौ बान ऑक्सीजन च। दिवाकर भट्ट जन नेता कुण गैरसैंण अपण दगड्या, अपण बोटरूं, जनता, तै बेळमाणो ढोल च, दमौ च, मुसक्बाज च। दिवाकर भट्ट जन नेतौं कुण सब्युं तैं बेवकूफ बणाणो माध्यम च गैरसैंण। उत्तराखंड मा नै राजकरण्या (राजनैतिक) पार्टी कुणि गैरसैंण राजकरणि क थौळ मा आणो कुणि कंधा च, सीडी च, खाम च, पुळ च, भुम्या च, भैरब च अर जनी काम निकळीगे तन्नी गैरसैंण तैं गैरो गदन मा दफनै जालो। जब दिल्ली या मुंबई सरीखा जगा बिटे
न्युतो
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दगड्यों! पैथ्राक दस सालों बटि नामी-गिरामी चिट्ठी-पतरी(गढ़वळी पत्रिका) कि गढ़वळी भाषै बढ़ोत्तरी मा भौत बड़ी मिळवाक च। यीं पतड़ीन् गढ़वळी साहित्य संबन्धी कथगा इ ख़ास सोळी(विशेषांक) छापिन्। जनकि लोकगीत, लोककथा, स्वांग(नाटक), अबोधबंधु बहुगुणा, कन्हैयालाल डंडरियाल, भजनसिंह ’सिंह’, नामी स्वांग लिखनेर(लिख्वार) ललितमोहन थपलियाळ पर खास सोळी (विशेषांक) उल्लेखनीय छन। पत्रिका कू एक हौर पीठ थप थप्यौण्या पर्यास गढ़वळी कविता पर खास सोळी च। जैं सोळी मा १२३ कवियुं कि १४३ कविता छपेन्। दगड़ मा एक भौत बड़ी किताब बि छप्याणि च जख मा सन १७०० से लेकी २०११ तक का हरेक कवि की कविता त छपेली ई दगड़ मा गढ़वळी कविता कू पुराण इतियास बि शामिल होलू। अग्वाड़ी (भविष्य मा) आपै अपणि "चिट्ठी पतरी" कि मन्शा गढ़वळी कथा-सोळी(विशेषांक) छापणै च। इख्मा आपौ सौ-सय्कार(सहकार) मिळवाक चयाणि च। आपसे हथजुड़े च बल ईं ख़ास सोळी क बान बन्नि-बन्नि कथा भ्याजो जी! कथा क विष्यूं मा श्रृंगार (प्रेम, विच्छोह, काम (erotika), समाज विद्रोही प्रेम, प्रेम मा टूटन, तलाक, ब्यौ पैथरां प्रेम संबन्ध(विवाहेत्तर प्रेम), बाळकथा, जात्रा संस्
गढवाल में मकरैण (मकर संक्रांति) और गेंद का मेला
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गंगासलाण याने लंगूर, ढांगु, डबरालस्युं, उदयपुर, अजमेर में मकरसंक्रांति का कुछ अधिक ही महत्व है। सेख या पूस के मासांत के दिन इस क्षेत्र में दोपहर से पहले कई गाँव वाले मिलकर एक स्थान पर हिंगोड़ खेलते हैं। हिंगोड़ हॉकी जैसा खेल है। खेल में बांस कि हॉकी जैसी स्टिक होती है तो गेंद कपड़े कि होती है। मेले के स्थान पर मेला अपने आप उमड़ जाता है। क्योंकि सैकड़ो लोग इसमें भाग लेते हैं। शाम को हथगिंदी (चमड़े की) की क्षेत्रीय प्रतियोगिता होती है और यह हथगिंदी का खेल रात तक चलता है हथगिंदी कुछ-कुछ रग्बी जैसा होता है। पूर्व में हर पट्टी में दसेक जगह ऐसे मेले सेख के दिन होते थे। सेख की रात को लोग स्वाळ पकोड़ी बनाते हैं और इसी के साथ मकर संक्रांति की शुरुआत हो जाती है। मकर संक्रांति की सुबह भी स्वाळ पकोड़ी बनाये जाते हैं। दिन में खिचड़ी बनाई जाती है व तिल गुड़ भी खाया जाता है। इस दिन स्नान का भी महत्व है। इस दिन गंगा स्नान के लिए लोग देवप्रयाग, ब्यास चट्टी, महादेव चट्टी, बंदर भेळ, गूलर गाड़, फूलचट्टी, ऋषिकेश या हरिद्वार जाते हैं। इन जगहों पर स्नान का धार्मिक महत्व है। गंगा सलाण में संक्रांति के दिन कटघर,
क्या नपुंसकों की फ़ौज गढ़वाली साहित्य रच रही है ?
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भीष्म कुकरेती जो जीवविज्ञान की थोड़ी बहुत जानकारी रखते हैं वे जानते हैं कि, जीव-जंतुओं में पुरुष कि भूमिका एकांस ही होती है, और वास्तव में पुरुष सभी बनस्पतियों, जानवरों व मनुष्यों में नपुंसक के निकटतम होता है। एक पुरुष व सोलह हजार स्त्रियों से मानव सभ्यता आगे बढ़ सकती है। किन्तु दस स्त्रियाँ व हजार पुरुष से मानव सभ्यता आगे नहीं बढ़ सकती है। पुरुष वास्तव में नपुंसक ही होता है, और यही कारण है कि, उसने अपनी नपुंसकता छुपाने हेतु अहम का सहारा लिया और देश, धर्म(पंथ), जातीय, रंगों, प्रान्त, जिला, भाषाई रेखाओं से मनुष्य को बाँट दिया है। यदि हम आधुनिक गढ़वाली साहित्य कि बात करें तो पायेंगे कि आधुनिक साहित्य गढ़वाली समाज को किंचित भी प्रभावित नहीं कर पाया है। गढ़वालियों को आधुनिक साहित्य की आवश्यकता ही नहीं पड़ रही है। तो इसका एक मुख्य करण साहित्यकार ही है। जो ऐसा साहित्य सर्जन ही नहीं कर पाया की गढ़वाल में बसने वाले और प्रवासी गढ़वाली उस साहित्य को पढने को मजबूर हो जाय। वास्तव में यदि हम मूल में जाएँ तो पाएंगे कि गढवाली साहित्य रचनाकारों ने पौरुषीय रचनायें पाठकों को दी और पौरुषीय रचना हमेशा
टिहरी बादशाहत का आखिरी दिन
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टिहरी आज भले ही अपने भूगोल के साथ उन तमाम किस्सों को भी जलमग्न कर समाधिस्थ हो चुकी है। जिनमें टिहरी रियासत की क्रुर सत्ता की दास्तानें भी शामिल थीं। जिनमें ‘ राजा ’ को जिंदा रखने के लिए दमन की कई कहानियां बुनी और गढ़ी गई। वहीं जिंदादिल अवाम का जनसंघर्ष भी जिसने भारतीय आजादी के 148 दिन बाद ही बादशाहत को टिहरी से खदेड़ दिया था। इतिहास गवाह है ‘ भड़ ’ इसी माटी में जन्में थे। टिहरी की आजादी के अतीत में 30 मई 1930 के दिन तिलाड़ी ( बड़कोट ) में वनों से जुड़े हकूकों को संघर्षरत हजारों किसानों पर राजा की गोलियां चली तो जलियांवाला बाग की यादें ताजा हो उठी। इसी वक्त टिहरी की मासूम जनता में तीखा आक्रोश फैला और राज्य में सत्याग्रही संघर्ष का अभ्युदय हुआ। जिसकी बदौलत जनतांत्रिक मूल्यों की नींव पर प्रजामण्डल की स्थापना हुई और पहला नेतृत्व जनसंघर्षों से जन्में युवा श्रीदेव सुमन को मिला। यह राजतंत्र के जुल्मों के खिलाफ समान्तर खड़े होने जैसा ही था। हालांकि , राजा की क्रूरता ने 25 जुलाई 1944 के दिन सुमन की जान ले ली थी। 84 दिनों की ऐतिहासिक ‘ भूख हड़ताल ’ के बाद क्रांतिकारी श्रीदेव सुमन ‘ बेड़ियों ’ से
संघर्ष की प्रतीक रही टिहरी की कुंजणी पट्टी
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देवभूमि उत्तराखंड वीरों को जन्म देने वाली भूमि के नाम पर भी जानी जाती है। इसी राज्य में टिहरी जनपद की हेंवलघाटी के लोगों की खास पहचान व इतिहास रहा है। इतिहास के पन्नों पर घाटी के लोगों की वीरता के किस्से कुछ इस तरह बयां हैं कि उन्होंने कभी अन्याय व अत्याचार सहन नहीं किया और अपने अधिकारों व संसाधनों की लड़ाई को लेकर हमेशा मुखर रहे। राजशाही के खिलाफ विद्रोह व जनता के हितों के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले अमर शहीद श्रीदेव सुमन का नाम आज हर किसी की जुबां पर है , लेकिन सचाई यह है कि हेंवलघाटी के लोग उनसे भी पहले टिहरी रियासत के खिलाफ बगावत का बिगुल बजा चुके थे। श्रीदेव सुमन से 30 वर्ष पूर्व तक हेंवलघाटी के नागणी के नीचे ऋषिकेश तक कुंजणी पट्टी कहलाती थी। वर्ष 1904 में टिहरी गढ़वाल रियासत में जंगलात कर्मचारियों का आतंक बेतहाशा बढ़ गया था। रियासत के अन्य इलाकों में जहां उनके अन्याय बढ़ते गए तो कुंजणी पट्टी के लोगों ने इसके
वरिष्ट साहित्याकार श्री भीष्म कुकरेती का दगड़ वीरेंद्र पंवार कि छ्वीं-बत्थ
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वीरेन्द्र पंवार : तुमारा दिखण मा अच्काल गढवाळी साहित्य कि हालात कनि च ? भीष्म : मी माणदो गढवाळी साहित्य कु हाळ क्वी ख़ास भलु नि च। थ्वाड़ा कविता अर गीतुं बटें आश छ बि च। स्वांगूं बटें उम्मेद छै पण, जब स्वांग इ नि खिल्येणा छन त क्य बोले सक्यांद। बकै गद्य मा त जख्या भन्गलु जम्युं च। जु साहित्यऔ छपण तैं कैंड़ो/मानदंड मानिल्या त बोले सक्यांद बल कुछ होणु च। पण, साहित्य छपण से जादा हमथैं यू दिखण चयांद कि बंचनेरूं तैं गढवाळी साहित्य औ भूक कथगा च। कथगा बंचनेर गढवाळी साहित्य अर लिख्नदेरुं छ्वीं गौं गौळौं (समाज) मा लगाणा छन। कथगा बन्चनेर अपण गेड़ीन् गढवाळी साहित्य थैं बरोबर खरीदणा छन? बंचनेरुं बिज्वाड़/पौध क हिसाबन् त गढवाळी साहित्य मा सुखो इ च। हाँ कवि सम्मेल्नुं बटिन उम्मेद च बल बन्चनेर बौडी सक्दन। असल मा गढ़वाळी साहित्य रच्नेंदारों/रचनाकार मा पैलि बिटेन एक इ कमी राई बल हिंदी का पिछवाड़ी चलण कि अर याँ से हम बंचनेरुं तादात नी बढ़ाई सकवां। फिर एक ह्वेका बि लिख्युं साहित्य फुळणो (वितरण / प्रचार / प्रसार) कबि बि नी ह्व़े। जब कि कवि सम्मेलन / गीत संध्या क बान संगठन काम कर्दन त उखमा सुणदेर/श्रोता
स्वागत सत्कार
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नयि सदी नया बरस तेरु स्वागत तेरु सत्कार हमरा मुल्क कि मोरी मा नारेंण खोळी मा गणेश चौंरौं कि शक्ति द्यब्तौं कि भक्ति कर्दी जग्वाळ् तेरु त्यौहार हमरि गाणि बस्स इतगा स्याणि पछाण कि च लपस्या साक्यूं कि च तपस्या हमरा बाग हमरा बग्वान पसर्यूं बसंत गुणमुणौंद भौंर सी उलार्या बगच्छट बणिं घड़ेक थौ बिसौ हमरा गुठ्यार ऐंसू धारि दे हळ्या का कांद मा हौळ् बळ्दुं दग्ड़ि बारामासी टुटीं वीं कुल बटै हमरि डोखरी पुंगड़्यों मा लगैदे धाण कि पवांण सेरा उखड़ उपजै नयिं नवांण कर कुछ यन सुयार औजि तैं पकड़ै लांकुड़ गौळा उंद डाळी दे ढोल गुंजैदे डांडी कांठ्यों मा पंडौं अर जैंति का बोल अणसाळ् गड़्वै छुणक्याळी दाथुड़ी बुंणि दे दाबला अर पैलुड़ी अपणा ठक्करूं दिशा कि खातिर मिली जैलि त्वै बि ड्डवार कुळैं देवदारुं बिटि छिर्की पैटैदे पौन बणैक रैबार वे मुल्क हपार जखन बौडिक नि ऐनि हमरा बैख बैण्यों कि रखड़ी ब्वै कु उलार जग्वाळ् च बादिण बौ का ठुमकौं थैं अर पठाळ्यों का घार हे चुचा अब त बणिजा हमरा ब्यौ कु मंगल्यार। Source- Jyundal (A Collection of Garhwali Poems) Copyright@ Dhanesh