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Showing posts from September, 2010

सांत्वना

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दो पीढ़ियों का इन्तजार आयेगा कोई समझायेगा कि उनके आ जाने तक भी नहीं आया था विकास गांव वाले रास्ते के मुहाने पर तुम्हारी आस टुटी नहीं है इस बुढ़ापे में भी और तुम क्यों आस में हो तुम्हारे लिए तो मैं खिलौने लाया हूं सर्वाधिकार- धनेश कोठारी

असमय बुढ़ी हो गई है मां

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लोकभाषाओं की मान्यता को पहला कदम

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पहाड़

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मेरे दरकने पर तुम्हारा चिन्तित होना वाजिब है अब तुम्हें नजर आ रहा है मेरे साथ अपना दरकता भविष्य लेकिन मेरे दोस्त! देर हो चुकी है अतीत से भविष्य तक पहुंचने में भविष्य पर हक दोनों का था आने वाले कल तक हमें कल जैसे ही जुड़े रहना था लाभ का विनिमय करने में चुक गये तुम, दोस्त! तुम्हारा व्यवहार उस दबंग जैसा हो गया जो सिर्फ लुटने में विश्वास रखता है जिसके कोश में ’अपराध’ जैसा कोई शब्द नहीं बल्कि अपराध उसकी नीति में शामिल है लिहाजा अपने दरकते वजूद के साथ- तुम्हारे घावों का हल मेरे पास नहीं यह भी तुम्हें ही तलाशना होगा मैं अब भी तुम्हारे अगले कदम की इन्तजार में हूं। सर्वाधिकार- धनेश कोठारी

विकास का सफर

        विकास का सफर ढ़ोल ताशों की कर्णभेदी से शुरू होकर शहनाई की विरहजनित धुन के साथ कार्यस्थल पर पहुंचता है। बाइदवे यदि यात्रा के दौरान निर्धारित समय व्यतीत हो गया तो वह अवमुक्ति के बगैर ही उलटे बांस बरेली की बतर्ज लौट पड़ता है। यों दूर के ढोल की मादक थाप पर मंजिल पर बैठा इन्तजार करता आदमी उसके आने की उम्मीद में अभिनंदन की मुद्रा में तरतीब हो जाता है। मगर रूदन भरी दशा से मुखातिब होते ही उसे शोकसभा आहूतकर बिस्मिल्लाह कहना पड़ता है। वह जब सत्ता की देहरी से विदा होता है तो पतंगे शिद्दत से इतराते हैं। मर्मज्ञ कथावाचक उसकी देहयष्टि का रेखांकन इस मादकता से करते हैं कि भक्तगण बरबस इठलाये बिना नहीं रह पाते। विकास मार्निंग वाक पर निकल टहलते-टहलते प्रियजनों से भरत मिलाप करते हुए, खुचकण्डि का कलेवा बांटते हुए लक्ष्यभूमि में उसकी हकीकत नुमाया हो जाती है। जैसे ‘को नहीं जानत है जग......’की भांति कि, वह किस प्रयोजन से और किसके लिए उद्घाटित होता है। भूखा-प्यासा थका-मांदा मांगता है। किंतु-परंतु में नियति देखिए कि वहां राजा हरिश्चंद्र की भूमिका में संभावना टटोली जाती हैं। कभी-कभी उसे गुंजाइश के बिना

काश लालबत्तियां भगवा होती

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बसंत के मौल्यार से पहले जब मैं ‘दायित्वधारी‘ जी से मिला था तो बेहद आशान्वित से दमक रहे थे। भरी दोपहरी में चाय की चुस्कियों के साथ डेलीवार्ता की शुरुआत में ही उस दिन ‘श्रीमन् जी‘ ने अपने भविष्य को इमेजिन करना शुरु किया। ‘नास्त्रेदमस‘ के अंदाज में कहने लगे। जब नये साल में धरती पर बसंत दस्तक दे रहा होगा, ठिठुरते दिन गुनगुनी धूप को ताक रहे होंगे तो दलगत नीति के तहत दिशाहीनता के बोध के साथ पसरेगा अंधेरा........ और कारों के क्राउन एरिया में ‘लालबत्तियां’ उदीप्त हो सायरन की हूटिंग के साथ सड़कों पर दौड़ने लगेंगी। वे इस सेल्फमेड डार्कनेस में हमारे भीतर के अंधकार को प्रकाशित करेंगी। नेकर की जगह शेरवानी पहने का मौका आयेगा और ज्योतिर्मय होगा, बंद गिरेबां। तमसो मा...... की भांति। लालबत्तियां मात्र प्रकाश स्तम्भ नहीं बल्कि भविष्य हैं। इसी के संदीपन में प्रगति का ककहरा पढ़ा व गढ़ा जा सकता है। निश्चित ही उनकी इस ‘लालबत्ती‘ रूपी आशा के कई कारण थे। कि, अब तक छप्पन बसंत उन्होंने नेकर की पनाह में रहते हुए निष्ठा के साथ गुजारे। वह सब अंजाम दिया जो चातुर नेता होने के लिए जरुरी थे। उन्हें मालूम था कह

कुत्ता ही हूं, मगर.....

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       कल तक मेरे नुक्कड़ पर पहुंचते ही भौंकने लगता था वह। जाने कौन जनम का बैर था उसका मुझसे। मुझे नहीं मालूम कि मेरी शक्ल से नफरत थी उसे , या मेरे शरीर से कोई गंध महकती थी जो उसे नापसंद हो। इसलिए अक्सर मुझे अपने लिए अलग रास्ता तलाशना पड़ता था। राजग या संप्रग से भी अलग। लेकिन आज दृश्य बदला नजर आया। मुझे लगा कि शायद किडनी कांड की दहशत उसमें भी घर कर गई है। शायद डर रहा था कि कहीं उसका नाम न उछल जाये , या फिर कुछ और कारण भी ......... । खैर , आज माहौल में राक्षसी गुर्राहट की जगह पश्चाताप की सी मासूमियत उसकी गूं - गूं में सुनाई दे रही थी। मानो कि वह अब तक की भूलों के लिए शर्मिन्दा हो। अब गिरोह बंदी से जैसे तौबा। गठबंधन की सभी संभावनाओं के लिए उसके दरवाजे खुले हुए। बिलकुल आयातित अर्थ व्यवस्था की तरह। बिरादर और गैर बिरादर से भी परहेज नक्को। तब उसकी दुलारती पूंछ और एड़ियों के बल उचकने की हरकत ने मुझे आश्चर्यचकित कर दिया था। किसी सपने के भ्रम में मैंने स्वयं को चिकोटी काटी तो , मेरी आउच ! के साथ ही वह तपाक से बोल पड़ा। , कुत्ता ही हूं सौ फीसदी वही कुत्ता। जो नापसंदों की बखिया उधेड़कर

अब तुम

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अब तुम सिंग ह्वेग्यां रंग्युं स्याळ् न बण्यांन् सौं घैंटणौं सच छवां कखि ख्याल न बण्यांन् उचाणा का अग्याळ् छवां ताड़ा का ज्युंदाळ् न बण्यांन् थर्प्यां द्यब्ता छां हमखुणि अयाळ् - बयाळ् न बण्यांन् निसक्का कि ताणि छवां तड़तड़ी उकाळ् न बण्यांन् सैंन्वार जाणि हिटणान् सब्बि च्वीलांण भ्याळ् न बण्यांन् सना-सना बिंगौंणन् छ्विं बन्दर फाळ् न मार्यान् सांका परै कि खुद छवां कुरघसिं काल न बण्यांन् ज्युंदौं कि आस छवां ज्युंरा कु ढाळ् न बण्यांन् माथमि आशीष छवां कखि गाळ् न बण्यान् Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems) Copyright@ Dhanesh Kothari

गुरूवर! विपक्ष क्या है

          आधुनिक शिष्य किताबी सूत्रों से आगे का सवाल दागता है। गुरूजी! विपक्ष क्या होता है? प्रश्न तार्किक था, और शिष्य की जिज्ञासा से सहमति भी थी। किंतु, इस तारांकित प्रष्न के भाव को परिप्रेक्ष्य से जोड़कर परिभाषित करना कृष्ण-अर्जुन के संवाद जैसा था। जहां से गीता का अवतरण हुआ। विवेक की खिड़कियां खोलते हुए मैंने सवाल पर लक्ष्य साधा। विपक्ष अर्थात पुष्टि और संतुष्टि के बाद भी भूख के स्थायी भाव में प्रविष्ट होना या कि डनलप पर सोने के आभास के चलते पत्थरों पर सलवटें डालने जैसा। मैंने बताया। लेकिन शिष्य की भूख अब भी शांत नहीं थी। मानो कि विपक्ष उसमें अवतरित होने लगा हो और शायद उसकी संदर्भ में शामिल होने की अकुलाहट बढ़ने लगी थी। गुरूजी पहेलियों को बुझने का समय नहीं है। चुनाव सामने हैं और चेहरों पर अभी भी धुंध जमी हुई है। शिष्य की आतुरता कुछ अधिक बढ़ती प्रतीत दी। मुझे लगा कि चेला गुरू की मुद्रा में बेंत लेकर सामने खड़ा है और मैं उसके सामने निरीह प्राणी सा मिमिया रहा हूं। साफ था कि, वह मेरे उत्तरों से तृप्त नहीं था। हे पार्थ! विपक्ष हमेशा अपने अग्रज पक्ष को प्रताड़ित कर हतोत्साहित करने को उ

घंगतोळ्

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तू हैंसदी छैं/त बैम नि होंद तू बच्योंदी छैं/त आखर नि लुकदा तू हिटदी छैं/त बाटा नि रुकदा तू मलक्दी छैं/त द्योर नि गगड़ान्द तू थौ बिसौंदी/त ज्यू नि थकदु तु चखन्यों कर्दी/त गाळ् नि होंदी तू ह्यर्दी छैं/त हाळ् नि होंदी तू बर्खदी बि/त खाळ् नि होंदी तू चुलख्यों चड़दी/त उकाळ् नि होंदी पण.... भैर ह्यर्दी/त भितर नि रौंदी भितर बैठदी/त घंगतोळ् होंद Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems) Copyright@ Dhanesh Kothari

’श्रीहरि’ का ध्यान नहीं लग रहा

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मैं जब १९९५ में सीमान्त क्षेत्र बदरीनाथ पहुंचा था। तो यहां के बर्फीले माहौल में पहाड़ लकदक दिखाई देते थे। तब तक यहां न ही बादलों में बिजली की कौंध दिखाई देती थी न उनकी गड़गड़ाहट ही सुनाए पड़ती थी। यहां के लोगों से सुना था कि बदरीनाथ में भगवान श्रीहरि विष्णु जन कल्याण के लिए ध्यानस्थ हैं। इसी लिए प्रकृति भी उनके ध्यान को भंग करने की गुस्ताखी नहीं करती है। आस्था के बीच यह सब सच भी जान पड़ता था। किन्तु आज के सन्दर्भों में देखें तो हमारी आस्था पर ही प्रश्नचिन्ह साफ नजर आते हैं। क्योंकि अब यहां बिजली सिर्फ कौंधती ही नहीं बल्कि कड़कती भी है। बादल गर्जना के साथ डराते भी हैं। इन दिनों पहाड़ों में प्रकृति के तांडव को देखकर यहां भी हर लम्हा खौफजदा कर देता है। ऐसे में जब पुरानी किंवंदन्तियों की बात छिड़ती है तो उन्हें कलिकाल का प्रभाव कहकर नेपथ्य में धकेल दिया जाता है। क्या कहें! क्या वास्तव में यह कलिकाल का असर है। या इस हिमालयी क्षेत्र में अनियोजित निर्माण के जरिये हमारी चौधराहट का नतीजा है। जहां पेड़ों, फुलवारियों की जगह पर इमारतें बना दी गई हैं। हालत यहां तक जा चुके कि धार्मिक उपक्रमों की

चुनावी मेले में परिवर्तन के स्वर

          अब अपनी दुखियारी की रोज की भांज हुई कि वह अबके परिवर्तन को कांज के रहेगी। फरानी बुनावट में कुछ गेटअप जो नहीं। सो, वह तो उधड़नी ही होगी। कई चिंतामग्न भी दुखियारी की तरह इन सर्दियों में चिंता का अखाड़ा जलाकर बैठे होंगे और उनकी अंगेठी पर ‘परिवर्तन’ पक रहा होगा तन्दूरी मुर्गे की तरह। लेकिन, तासीर है कि बर्फ की तरह जम रही है। खशबू सूंघते हुए जब मैंने भी तांकझांक कर संदर्भ को ‘टारगेट’ किया तो ‘परिवर्तन‘ के भांडे से कई तरह की ध्वनियां निकल रही थी। जैसे कि, परि- बर्तन, परि- बरतना व परि- वर्तनी आदि। ईलिंग-फलिंग, सभी तरह से कान बज रहे थे। संभव है कि, यह उच्चारण का दोष हो या फिर कह लो कि, मेरी गंवार भाषा का प्रभाव इन ध्वनियों से भ्रमित कर रहा हो। यह कानों का भ्रम या बुद्धि का फर्क भी हो सकता है। मजेदार कि, जिन्हें उकसाया जा रहा है, वे पहाड़ों पर गुनगुनी धूप का आनन्द लेने में मशगूल हैं। वे किसी भी कबड्डी में सूरमा नहीं होना चाहते हैं। जबकि परिवर्तन के ‘ठाकुर‘ सतत् गर्माहट बरकरार रखने का घूंसा बड़े-बड़े होर्डिंग्स लगाकर ठोक रहे हैं। खैर, जब बात पहले के मुकाबिल किसी बेजोड़, उन्नत और चमकद

घुम्मत फिरत

थौळ् देखि जिंदगी कू घुमि घामि चलिग्यंऊं खै क्य पै, क्य सैंति सोरि बुति उकरि चलिग्यऊं लाट धैरि कांद मा बळ्दुं कु पुछड़ु उळै बीज्वाड़ चै पैलि मि मोळ् सि पसरिग्यऊं उकळ्यों मि फलांग मैल सै च कांडों कु क्वीणाट फांग्यों मा कि बंदरफाळ् तब्बि दिख्यो त अळ्सिग्यऊं फंच्चि बांधि गाण्यों कि खाजा - बुखणा फोळी - फाळी स्याण्यों का सांगा हिटण चै पैलि थौ बिछै पट्ट स्यैग्यऊं थौला पर बंध्यां छा सांप मंत्रुं का कर्यां छा जाप दांत निखोळी बिष बुझैई फुंक्कार मारि डसिग्यऊं

गिद्ध गणना का सच

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अर्ली मॉर्निंग, मानों सूरज के साथ घोड़ों पर सवार खबरी मेरे द्वार पहुंचा। उसके चेहरे पर किरणों की तेजिस्वता की बजाय सांझ ढलने सी खिन्नता मिश्रित उदासी पसरी थी। उसकी मलिन आभा पर मैं कयास के गुब्बारे फुलाता कि, वह ‘फिदाइन’ सा फट पड़ा..... यहां चहुंदिशी गिद्ध ‘नवजात’ के गात (शरीर) पर डेरा जमाये हुए हैं। कई तो नोचने को उद्विग्न भी लगते हैं। किंतु फन्ने खां सर्वेयर गिद्ध गणना के जिन आंकड़ों को सार्वजनिक कर रहे हैं। उनमें नवजात पर झपटे गिद्धों की गणना कहीं शामिल ही नहीं है। मैं कुछ समझता अथवा कुछ प्रतिक्रिया दे पाता कि, खबरी ने मुंह उघाड़ने से पहले ही जैसे मुझे पूर्णविराम का इशारा कर डाला। उसके अनुसार, यूके में गिद्धों की संख्या में उम्मीद से अधिक इजाफा हुआ है, सही भी है। यहां आंकड़ों में सामान्य प्रजाति के साढ़े तीन हजार, साढ़े सात सौ के करीब हिमालयी व मात्र अब तक छप्पन ही अनाम प्रजातिय गिद्ध हैं। क्या आंकड़े सरासर मैनेज किये हुए नहीं लगते? अब बताओ कि, नवजात के गात पर झपटे गिद्धों की संख्या इनमें शामिल है? नहीं न........। यहां पर मैंने खबरी को रोका, भई इसमें निराश और खिन्न होने जैसी क्या

तेरि सक्या त...

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ब्वकदी रौ मिन हल्ळु नि होण तेरि सक्या त गर्रू ब्वकणै च दाना हाथुन् भारु नि सकेंदु अबैं दां तू कांद अळ्गौ तेरि घ्यू बत्तयोंन् गणेश ह्वेग्यों चौदा भुवनूं मा रांसा लगौ ब्वकदी रौ मिन हल्ळु नि होण तेरि सक्या त गर्रू ब्वकणै च सदानि सिच्युं तेरु बरगद ह्वेग्यों अपणा दुखूं मेरा छैल मा उबौ ब्वकदी रौ मिन हल्ळु नि होण तेरि सक्या त गर्रू ब्वकणै च श्हैद मा शोध्यूं नीम नितर्वाणी दिमाग बुजि सांका थैं ठगौ ब्वकदी रौ मिन हल्ळु नि होण तेरि सक्या त गर्रू ब्वकणै च खाणै थकुलि तेर्यि सौंरिं बारा पक्वान बावन व्यंजन बणौ ब्वकदी रौ मिन हल्ळु नि होण तेरि सक्या त गर्रू ब्वकणै च

सीएम वंश की असंतुष्टि

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लोक के तंत्र में ‘सीएम’ वंशीय प्राणियों की असंतुष्टि का असर क्लासरूम तक में पहुंच चुका था। मास्टर जी बेंत थामे थे। मगर, बेंत का मनचाहा इस्तेमाल न कर पाने से वे बेहद असंतुष्ट भी थे। विधायिका और कार्यपालिका नामना कक्षा के छात्र मास्साब की बेंत से बेखौफ उनके हर आदेश का ‘अमल’ निकालकर प्रयोग कर रहे थे। सो मुछों पर ताव देकर मास्साब ने छात्रों से ‘सीएम’ वंश की असंतुष्टि पर निबन्ध तैयार करने को कहा। फरमान जारी होते ही कक्षा में सन्नाटा सा पसर गया। क्योंकि वे छात्र भी एक सीएम (कामनमैन) वर्ग से जो जुड़े थे। सभी छात्र निबन्ध पत्र की कापी तैयार करने के लिए मुंडों को जोड़कर बौद्धिक चिंतन में मशरूफ हो गये। निश्चित ही छात्रों ने भी अपनी ज्ञान ग्रन्थियों को खोलकर काफी कुछ लिखा। इस काफी कुछ से सार-सार के संपादित अंश सैंदिष्ट हैं। ‘सीएम’ वंश की धराओं का भूगोल समाज सापेक्ष संस्कृति में दो पंथों में विभक्त है। एक निगुण धारा। जोकि ‘कामनमैन’ के रूप में यथास्थिति वाद पर किंकर्तव्यविमूढ़ है। निगुण इसलिए, क्योंकि ‘सीएम’ इनके लिए कुछ भी अच्छा कर दे ये उसका गुण नहीं मानते हैं। तो दूसरा सगुण मार्गीय ‘चीफ मिन

उल्लू मुंडेर पर

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      उल्लू के मुंडेर पर बैठते ही मैं आशान्वित हो चुका था। अपनी चौहदी में लक्ष्मी की पर्दार्पण की दंतकथाओं पर विश्वास भी करने लगा। शायद ‘दरबारी आरक्षी‘ की तरह उल्लू मुझे खबरदार करने को मेरी मुंडेर पर टिका था। खबरदार! होशियार!! प्रजापालक श्रीहरि विष्णु की अर्धांगनी ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी जी पधार रही हैं! मेरी आकाक्षायें खुशी से झूमने लगी। अब तक पत्थरों को बेरहमी से पीटते अपने हथौड़े को मैंने तब एक कोने में पटका। जहां वक्त ने मेरे बुरे दिनों के जाले बुने थे। यही जाले मेरी दरिद्रता के प्रमाण थे। तंगहाली के कोने में सरकाये हथौड़े की विस्मित दृष्टि से बेखबर, बेफिक्र था मैं। मैं तो लक्ष्मी की दस्तक का इंतजार कर रहा था। ‘लक्ष्मी‘ की अनुभूति में मेरी उत्तेजना बढ़ गई थी। भूल चुका था कि मैं नास्तिक हूं। उल्लुक आगमन शायद मेरे लिए आस्तिकता को लौटाकर लाया था। उसे शुभ मान बैठा था मैं। उस दिन श्रीयुक्त लक्ष्मी निश्चित ही मेरे घर तक आयी। किंतु मेरे दरवाजे पर दस्तक देने नहीं। बल्कि उल्लू को डपटने के लिए......। उस वक्त वैभवशाली सौंदर्य के बजाय रौद्र काली रूप धारण किया था लक्ष्मी ने। उल्लू को

बे - ताल चिंतन

         काल परिवर्तन ने अब बेताल के चिंतन और वाहक दोनों को बदल दिया। आज वह बिक्रम की पीठ पर सवार होकर प्रश्नों के जरिये राजा की योग्यता का आंकलन नहीं करना चाहता। बनिस्पत इसके बेताल अब ‘हरिया‘ के प्रति अधिक ‘साफ्रट‘ है। हरिया जो ‘लोकतंत्र’ में भी राजा की प्रजा है। हरिया से बेताल की निकटता आश्चर्य भी नहीं। क्योंकि, राजा अब कभी अकेला नहीं होता। न ही वह कभी एकान्त निर्जन में भ्रमण पर निकलने का शौक रखता है। दोनों के बीच सुरक्षा का एक बड़ा लश्कर तैनात है। जो बगैर इजाजत धुप को भी राजा के करीब नहीं फटकने देता। ताकि साया भी पीछा न कर सके। राजा अपनी मर्जी के रास्तों पर चलने की बजाय सचिवों के बताये अफर तय किये रास्तों पर ही सफर करता है। इसीलिए सचिवों ने आतंकवाद खतरा खड़ा कर फलीट के रास्ते में आने वाले सारे ‘बरगद‘ के पेड़ों को कटवा दिया है। ऐसे में यदि कभी राजा के अनुत्तरित हुआ तो भी बीच रास्ते से बेताल फुर्र भी नहीं हो सकता। यही नहीं आज राजा से संवाद का रिश्ता भी खत्म हो चुका है। क्योंकि राजा की भाषा और जुबां को भी सचिव ही तय करते हैं। सो बेताल को बार-बार राजा के करीबी होने का सबूत देना और मिल

डाळी जग्वाळी

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हे भैजी यूं डाळ्‌यों अंगुक्वैकि समाळी बुसेण कटेण न दे राखि जग्वाली आस अर पराण छन हरेक च प्यारी अन्न पाणि भूक-तीस मा देंदिन्‌ बिचारी जड़ कटेलि यूं कि त दुन्या क्य खाली..........., कन भलि लगली धर्ति सोच जरा सजैकि डांडी कांठी डोखरी पुंगड़्यों मा हर्याळी छैकि बड़ी भग्यान भागवान बाळी छन लठयाळी.........., बाटौं घाटौं रोप कखि अरोंगु नि राखि ठंगर्यावू न तेरि पंवाण जुगत कै राखि भोळ्‌ का इतिहास मा तेरा गीत ई सुणाली.........॥ Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems) Copyright@ Dhanesh Kothari

हिसाब द्‍या

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हम रखणा छां जग्वाळी तैं हर्याळी थैं हिसाब द्‍या, हिसाब द्‍या हे दुन्यादार लोखूं तुम निसाब द्‍या....... तुमरा गंदळा आसमान हमरु हर्याळी कू ढ़क्याण तुम, बम बणांदी रावा हम त रोपदी जौंला डाळा तुमारु धुळ माटु कचरा हम बुकाणा छां दिन द्वफरा तुमन्‌ ओजोन भेद्‍याली हम, पुणदा लगैकि डाळी तुमरि गाड़ीं च विपदा हमरि सैंति च संपदा तुमरु अटलांटिक छिजदा हमरु हिमाला जुगराज तुमरि ल्वैछड़्या कुलाड़ी हमरि चिपकदी अंग्वाळी तुमुन्‌ मनख्यात उजाड़ी हमुन्‌ पुन्यात जग्वाळी हिसाब द्‍या...................॥ Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems) Copyright@ Dhanesh Kothari

पण.......

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ग्वथनी का गौं मा बल सुबेर त होंदी च/ पण पाळु नि उबौन्दु ग्वथनी का गौं मा बल घाम त औंद च/ पण ठिंणी नि जांदी ग्वथनी का गौं मा बल मंगारु त पगळ्यूं च/ पण तीस नि हबरान्दी ग्वथनी का गौं मा बल उंदार त सौंगि च/ पण स्या उकाळ नि चड़्येन्दी ग्वथनी का गौं मा बल ब्याळी बसायत च/ पण आज-भोळ नि रैंद ग्वथनी का गौं मा बल सतीर काळी ह्‍वईं छन/ पण चुलखान्दौं आग नि होंद ग्वथनी का गौं मा बल दौ-मौ नि बिसर्दू बाद्‍दी/ पण बादिण हुंगरा नि लांदी ग्वथनी का गौं मा बल इस्कुलै चिणैं त ह्‍वईं च/ पण बाराखड़ी लुकि जांदी ग्वथनी का गौं मा बल स्याळ त गुणि माथमि दिखेंदा/ पण रज्जा जोगी जोगड़ा ह्‍वेजांदा ग्वथनी का गौं मा बल सौब धाणि त च/ पण कुछ कत्त नि चितेंद। Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems) Copyright@ Dhanesh Kothari