अब अपनी दुखियारी की रोज की भांज हुई कि वह अबके परिवर्तन को कांज के रहेगी। फरानी बुनावट में कुछ गेटअप जो नहीं। सो, वह तो उधड़नी ही होगी। कई चिंतामग्न भी दुखियारी की तरह इन सर्दियों में चिंता का अखाड़ा जलाकर बैठे होंगे और उनकी अंगेठी पर ‘परिवर्तन’ पक रहा होगा तन्दूरी मुर्गे की तरह। लेकिन, तासीर है कि बर्फ की तरह जम रही है। खशबू सूंघते हुए जब मैंने भी तांकझांक कर संदर्भ को ‘टारगेट’ किया तो ‘परिवर्तन‘ के भांडे से कई तरह की ध्वनियां निकल रही थी। जैसे कि, परि- बर्तन, परि- बरतना व परि- वर्तनी आदि। ईलिंग-फलिंग, सभी तरह से कान बज रहे थे। संभव है कि, यह उच्चारण का दोष हो या फिर कह लो कि, मेरी गंवार भाषा का प्रभाव इन ध्वनियों से भ्रमित कर रहा हो। यह कानों का भ्रम या बुद्धि का फर्क भी हो सकता है। मजेदार कि, जिन्हें उकसाया जा रहा है, वे पहाड़ों पर गुनगुनी धूप का आनन्द लेने में मशगूल हैं। वे किसी भी कबड्डी में सूरमा नहीं होना चाहते हैं। जबकि परिवर्तन के ‘ठाकुर‘ सतत् गर्माहट बरकरार रखने का घूंसा बड़े-बड़े होर्डिंग्स लगाकर ठोक रहे हैं। खैर, जब बात पहले के मुकाबिल किसी बेजोड़, उन्नत और चमकद