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Showing posts from August, 2010

चुनू

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हे जी! अब/ चुनौ कू बग्त औंण वाळु च तुमन् कै जिताण अरेऽ अबारि दां मिन अफ्वी खड़ु ह्‍वेक सबूं फरैं चुनू लगाण। Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems) Copyright@ Dhanesh Kothari

भरोसा कू अकाळ

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जख मा देखि छै आस कि छाया वी पाणि अब कौज्याळ ह्‍वेगे जौं जंगळूं कब्बि गर्जदा छा शेर ऊंकू रज्जा अब स्याळ ह्‍वेगे घड़ि पल भर नि बिसरै सकदा छा जौं हम ऊं याद अयां कत्ति साल ह्‍वेगे सैन्वार माणिं जु डांडी-कांठी लांघि छै हमुन् वी अब आंख्यों कू उकाळ ह्‍वेगे ढोल का तणकुला पकड़ी नचदा छा जख द्‍यो-द्‍यब्ता मण्ड्याण मा वख अब बयाळ ह्‍वेगे जौं तैं मणदु छौ अपणुं, घैंटदु छौ जौं कि कसम वी अब ब्योंत बिचार मा दलाल ह्‍वेगे त अफ्वी सोचा समझा जतगा सकदां किलै कि अब, दुसरा का भरोसा कू त अकाळ ह्‍वेगे Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems) Copyright@ Dhanesh Kothari

बांजि बैराट

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हे जी! अब त अपणु राज अपणु पाट स्यू किलै पकड़ीं स्या खाट अरे लठ्याळी! बिराणु नौ बल बिराणा ठाट द्‍यखणि त छैं/ तैं बांजि बैराट Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems) Copyright@ Dhanesh Kothari

गौं कु विकास

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हे जी! इन बोदिन बल कि गौं का विकास का बिगर देश अर समाज कु बिकास संभव नि च हांऽ भग्यानि! तब्बि त अब पंचैत राज मा गौं- खौंळौं मा बौनसाई नेतौं कि पौध रोपेणिं च Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems) Copyright@ Dhanesh Kothari

सामाजिक हलचलों की 'आस'

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बि सराये जाने के दौर में भी गढ़वाली साहित्य के ढंगारों में लगातार पौध रोपी ही नहीं जा रही, बल्कि अंकुरित भी हो रही है। वरिष्ठ साहित्यकार लोकेश नवानी के शब्दों में कहें तो "गढ़वाली कविता कुतगणी च"(कुलांचे भर रही है)। देखे-चरे की खाद-पानी से समय पोथियों में दस्तावेज बनकर दर्ज हो रहे हैं। विचार कविता बन रहे हैं या कहें कविता विचारों में प्रक्षेपित हो रही है। गढ़वाली कविता की नई पौध (किताब) आस से कुछ ऐसी ही अनुभूतियों की आस जगती है। आस कल-आज की सामाजिक हलचलों को जुबां देती है। आस का काव्य शिल्प मुक्तछंदों के साथ ही गुनगुनाकर भी शब्दों को बांचता है। पहले ही पन्ने पर नव हस्ताक्षर शांतिप्रकाश ‘जिज्ञासु’ ने पहाड़ के पीढ़ियों के दर्द पलायन को लक्ष्य कर विकास के बैलून पर हकीकत को ‘स्यूं-सख्त’चुबोया है- पंछ्यूंन ऊं घरूं ऐकी क्या कन्न/ जौं घरूं बैठणू थै चौक नि छन । अपनी बात में भी जिज्ञासु पलायन से उपजी स्थितियों के रेखांकन में ‘टकटकी बांधे’नजरों का जिक्र भर नहीं करते,नाखूनों से शताब्दियों को खोदकर पहाड़ में बगैर औजारों के ही जीवन के लिए ‘समतल’ पैदा करने और वीरानों में जिन्दा रहने के ज

हम त गढ़वळी......

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हम त गढ़वळी छां भैजी दूर परदेस कखि बि हम तैं क्यांकि शरम अब त अलग च राज हमरु अलग च रिवाज हमरु हिमाला च ताज देखा ढोल दमौ च बाज बोली भासा कि पछाण न्यूत ब्यूंत मा रस्याण बोला क्यांकि शरम हम त नै जमान कि ढौळ पर पछाण त वी च छाळा गंगा पाणि जन माना पवित्र बि वी च दुन्या मा च हमरु मान हम छां अपड़ा मुल्कै शान न जी क्यांकू भरम हम त नाचदा मण्डेण रंन्चि झमकदा झूमैलो बीर पंवाड़ा हम गांदा ख्यलदा बग्वाळ मा भैलो द्‍यब्ता हमरि धर्ति मा हम त धर्ति का द्‍यब्तौ कि हां कत्तै नि भरम ज्यूंद राखला मुल्कै रीत दूर परदेस कखि बि नाक नथ बिसार गड़्वा पौंछी पैजी सजलि तक बि चदरि सदरि कु लाणु कोदू झंगोरा कु खाणु अब कत्तै नि शरम कै से हम यदि पिछनैं छां क्वी त हम चै बि पिछनै च धन रे माटी का सपूत तिन बि बीरता दिखलै च हम चा दूर कखि बि रौंला धर्ति अपड़ी नि बिसरौला सच्चि हम खांदा कसम Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems) Copyright@ Dhanesh Kothari

गिर्दा !!

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गिर्दा तुम याद आओगे जब भी लाट साहबों के फ़रमान मानवीयता की हदें तोड़ेंगे जब भी दरकेंगे समाज किसी परियोजना के कारण... जब भी जुड़ना चाहेंगे शब्द समाज की प्रगतिशीलता के लिए गिर्दा तुम याद आओगे कविता, गीतों की तान में.......। सर्वाधिकार- धनेश कोठारी

जलम्यां कु गर्व

गर्व च हम यिं धरती मा जल्म्यां उत्तराखण्डी बच्योंण कु देवभूमि अर वीर भूमि मा सच्च का दगड़ा होण कु आज नयि नि बात पुराणी संघर्षै कि हमरि कहानी चौंरा मुंडूं का चिंणी भंडारिन् ल्वै कि गदन्योन् घट्ट रिगैनी लोधी रिखोला जीतू पुरिया कतगि ह्‍वेन पूत-सपूत ज्यू जानै कि बाजि लगौण कु गंगा जमुना का मैती छां हम बदरी-केदार यख हेमकुण्ड धाम चंद्र सुर कुंजा धारी माता नन्दा कैलाश लग्यूं च घाम भैरों नरसिंग अर नागरजा निरंकार कि संगति च हाम पांच परयाग हरि हरिद्वार अपणा पाप बगौण कु मान सम्मान सेवा सौंळी प्यार उलार रीत हमरि धरम ईमान कि स्वाणि सभ्यता सब्यों रिझौंदी संस्कृति न्यारी धीर गंभीर अटक-भटक नि डांडी कांठी शांत च प्यारी कतगि छविं छन शब्द नि मिलदा पंवड़ा गीत सुणौण कु मेलुड़ि गांदि बासदी हिलांस परदेस्यों तैं लगदी पराज फूलुं कि घाटी पंवाळी बुग्याळ ऊंचा हिमाला चमकुद ताज फ्योंली बुरांस खिलखिल हैंसदा संगति बस्यूं च मौल्यारी राज आज अयूं छौं यखमु मि त पाड़ी मान बिंगौंण कु Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems) Copyright@ Dhanesh Kothari

प्रीत खुजैई

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रीतु न जै रे प्रीत खुजैई मेरा मुलकै कि समोण लिजैई रीतु न जै रे फुलूं कि गल्वड़्यों मा भौंरौं कु प्यार हर्याळीन् लकदक डांड्यों कि अन्वार छोयों छळ्कदु उलार छमोटु लगैई ढोल दमो मा द्‍यब्तौं थैं न्युति जसीला पंवाड़ा गैक मन मयाळु जीति मंडुल्यों मा नाचि खेलि आशीष उठैई बैशाख मैना बौडिन् तीज त्योहार घर-घर होलु बंटेणुं आदर सत्कार छंद-मंद देखि सर्र पर्वाण ह्‍वे जैई Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems) Copyright@ Dhanesh Kothari

शैद

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उजाड़ी द्‍या युंका चुलड़ौं शैद, मौन टुटी जावू खैंणद्‍या मरच्वाड़ा युंका शैद, आंखा खुलि जौंन रात बासा रौंण न द्‍या शैद, सुपन्या टुटी जौंन बांधि द्‍या गौळा घंडुळी शैद, मुसा घौ मौळौंन थान मा बोगठ्या सिरैद्‍या शैद, द्‍यब्ता तुसि जौंन कांडु माछा कु गाड़ धौळा शैद, गंगा का जौ हात औंन उच्च कंदुड़्यों सुणै छ्‌विं त लगा शैद, सच्च-सच्च बाकि जौंन Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems) Copyright@ Dhanesh Kothari

गैरा बिटि सैंणा मा

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हे द्‍यूरा! स्य राजधनि गैरसैंण कब तलै ऐ जाली? बस्स बौजि! जै दिन तुमरि-मेरि अर हमरा ननतिनों का ननतिनों कि लटुलि फुलि जैलि शैद वे दिन स्या राज-धनि तै गैरा बिटि ये सैंणा मा ऐ जाली। Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems) Copyright@ Dhanesh Kothari

पारंपरिक मिजाज को जिंदा रखे हुए एक गांव..

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हेरिटेज विलेज माणा हिमालयी दुरूहताओं के बीच भी अपने सांस्कृतिक व पारंपरिक मिजाज को जिंदा रखे हुए एक गांव... हिमालय लकदक बर्फ़ीले पहाड़ों, साहसिक पर्यटक स्थलों व धार्मिक तीर्थाटन केन्द्र के रूप में ही नहीं जाना जाता। अपितु, यहां सदियों से जीवंत मानव सभ्यता अपनी सांस्कृतिक जड़ों को गहरे तक सहेजे हुए हैं। चकाचौंध भरी दुनिया में छीजते पारम्परिक मिजाज के बावजूद आज भी यहां पृथक जीवनशैली, रीति-रिवाज, परंपरायें, बोली-भाषा और संस्कृति का तानाबाना अपने सांस्कृतिक दंभ को आज भी जिंदा रखे हुए है। कुछ ऐसा ही अहसास मिलता है, जब हम भारत के उत्तरी सीमान्त गांव ‘माणा’ में पहुंचते हैं। जोकि आज वैश्विक मानचित्र पर ‘हेरिटेज विलेज’ के रूप में खुद को दर्ज करा चुका है। विश्व विख्यात आध्यात्मिक चेतना के केन्द्र श्री बदरीनाथ धाम से महज तीन किमी. आगे है सीमांत गांव माणा। माणा अर्थात मणिभद्र्पुरम। पौराणिक संदर्भों में इस गांव को इसी नाम से जाना जाता है। धार्मिक इतिहास में मणिभद्रपुरम को गंधर्वों का निवास माना जाता था। आज के संदर्भों में देखे तो माणा गांव सीमांत क्षेत्र होने के साथ ही विषम भौगौलिक परिस

इस दौर की ‘फूहड़ता’ में साफ सुथरी ऑडियो एलबम है ‘रवांई की राजुला’

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       नवोदित भागीरथी फिल्मस ने ऑडियो एलबम ‘रवांई की राजुला’ की प्रस्तुति के जरिये पहाड़ी गीत-संगीत की दुनिया में अपना पहला कदम रखा। विनोद बिजल्वाण व मीना राणा की आवाज में लोकार्पित इस एलबम से विनोद ‘लोकगायक’ होने की काबिलियत साबित करते हैं। कैसेट में संगीत वीरेन्द्र नेगी है, जबकि गीत स्वयं विनोद ने ही रचे हैं। विनोद अपने पहले ही गीत ‘बाड़ाहाट मेळा’ में ‘लोक’ के करीब होकर रवांई के सांस्कृतिक जीवन पर माघ महिने के असर को शब्दाकिंत करते हैं। जब ‘ह्यूंद’ के बाद ऋतु परिवर्तन के साथ ही रवांई का ग्राम्य परिवेश उल्लसित हो उठता है। बाड़ाहाट (उत्तरकाशी) का मेला इस उल्लास का जीवंत साक्ष्य है। जहां लोग ‘खिचड़ी संगरांद’ के जरिये न सिर्फ नवऋतु का स्वागत करते हैं, बल्कि उनके लिए यह मौका अपने इष्टदेवों के प्रति आस्थाओं के अर्पण का भी होता है। रांसो व तांदी की शैली में कैसेट का पहला गीत सुन्दर लगता है। यों ‘ढफ’ पहाड़ी वाद्‍य नहीं, फिर भी इस गीत में ढफ का प्रयोग खुबसुरत लगता है। ढोल-दमौऊं की बीट पर रचा एलबम का दूसरा गीत ‘ऋतु बसन्त’ पहाड़ों पर बासन्तिय मौल्यार के बाद की अन्वार का चित्रण है। ऐसे में पह

युद्ध में पहाड़

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मेरे देश का सैनिक पहाड़ था पहाड़ है टूट सकता है झुक नहीं सकता उसकी अभिव्यक्ति/ उसकी भक्ति उसका साहस/ उसकी शक्ति उसकी वीरता/ उसका शौर्य उसका कौशल/ उसका धैर्य और प्ररेणा भी पहाड़ है बैरी के समक्ष एक और समान्तर पहाड़ रंचने को तत्पर वह उसको आत्म बलिदान का सबक पूर्वजों ने घुट्टी में ही दिया था राष्ट्र के लिए मर मिटने का अर्न्तभाव रक्त कणिकाओं में अकुलाहट युद्ध के समय मनस्वाग बना डालती हैं उसे फिर कैसे झुटला सकते हो विरासत की अन्त: प्रेरणा को आज वह पहाड़ बना है तो, राष्ट्रीय धमनियों का कतरा-कतरा भी पहाड़ बनने का आह्‍वान करता है Copyright@ Dhanesh Kothari

मुट्ठियों को तान दो

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मुट्ठियां भींचो मगर मुट्ठियों में लावा भरकर मुट्ठियों को तान दो दुर व्यवस्था के खिलाफ़ इस हवा को रूद्ध कर दो मुट्ठियां विरूद्ध कर दो अराजक वितान में. तुम मुट्ठियों को तान दो वाद वादी की खिलाफ़त छद्धम युद्धों से बगावत मुट्ठियों की है जुर्रत मुट्ठियों को तान दो सवाल दर सवालों के जवाब होंगी मुट्ठियां हाथ फ़ैला मिले न हक मुट्ठियां लहरा के खुद उसके हलक से खींच लो मुट्ठियों को तान दो बात मानें शब्दों की तो शब्द भर दो मुट्ठियों में हर शाख उल्लू बैठा हो जब हथियार थामों मुट्ठियों में जिंदादिल हैं मुट्ठियां मुट्ठियों को तान दो आवाज दो आवाज दो मुट्ठियों को तान दो Copyright@ Dhanesh Kothari

आवाज

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तुम्हारे शब्द मेरे शब्दों से मिलते हैं हमारा मौन टुटता नजर भी आता है वो तानाशाह है हमारी देहरी पर हम अपनी मांद से निकलें तो बात बन जाये वो देखो आ रही हैं बुटों बटों की आवाजें म्यान सहमी है सान चढ़ती तलवारें मुट्‍ठियां भींच कर लहरायें तो देखो कारवां बन जाये चंद मोहरों की चाल टेढ़ी है प्यादे गुमराह कत्ल होते हैं शह की हर चाल रख के देखो तो मात निश्चित उन्हीं की हो जाये तुम्हारे शब्द...........। Copyright@ Dhanesh Kothari

गैरसैंण राजधानी ???

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उत्तराखण्ड की जनसंख्या के अनुपात में गैरसैंण राजधानी के पक्षधरों की तादाद को वोट के नजरिये से देखें तो संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता है। क्योंकि दो चुनावों में नतीजे पक्ष में नहीं गये हैं। सत्तासीनों के लिए यह अभी तक ’हॉट सबजेक्ट’ नहीं बन पाया है। आखिर क्यों? लोकतंत्र के वर्तमान परिदृश्य में ’मनमानी’ के लिए डण्डा अपने हाथ में होना चाहिए। यानि राजनितिक ताकत जरूरी है। राज्य निर्माण के दस साला अन्तराल में देखें तो गैरसैण के हितैषियों की राजनितिक ताकत नकारखाने में दुबकती आवाज से ज्यादा नहीं। कारणों को समझने के लिए राज्य निर्माण के दौर में लौटना होगा। शर्मनाक मुजफ़्फ़रनगर कांड के बाद ही यहां मौजुदा राजनितिक दलों में वर्चस्व की जंग छिड़ चुकी थी। एक ओर उत्तराखण्ड संयुक्त संघर्ष समिति में यूकेडी और वामपंथी तबकों के साथ कांग्रेसी बिना झण्डों के सड़कों पर थे, तो दूसरी तरफ भाजपा ने ’सैलाब’ को अपने कमण्डल भरने के लिए समान्तर तम्बू गाड़ लिये थे। जिसका फलित राज्यान्दोलन के शेष समयान्तराल में उत्तराखण्ड की अवाम खेमों में ही नहीं बंटी बल्कि चुप भी होने लगी थी। उम्मीदें हांफने लगी थी, भविष्य का सूरज दलो

बसन्त

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बसन्त हर बार चले आते हो ह्‍यूंद की ठिणी से निकल गुनगुने माघ में बुराँस सा सुर्ख होकर बसन्त दूर डांड्यों में खिलखिलाती है फ्योंली हल्की पौन के साथ इठलाते हुए नई दुल्हन की तरह बसन्त तुम्हारे साथ खेली जाती है होली नये साल के पहले दिन पूजी जाती है देहरी फूलों से और/ हर बार शुरू होता है एक नया सफर जिन्दगी का बसन्त तुम आना हर बार अच्छा लगता है हम सभी को तुम आना मौल्यार लेकर ताकि सर्द रातों की यादों को बिसरा सकूं बसन्त तुम आना हर बार॥ सर्वाधिकार- धनेश कोठारी

नन्हें पौधे

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प्लास्टिक की थैलियों में उगे नन्हें पौधे आपकी तरह ही युवा होना चाहते हैं दशकों के बाद बुढ़ा जाने की नहीं चिन्ता उन्हें चुंकि, तब तक कई मासूमों को जन्म दे चुके होंगे वे दे चुके होंगे हवा, पानी, लकड़ी, जीवन और दुसरों के लिए जीने की सोच..... तनों को मजबूत करने को जड़ों को गहरे जमाने की सीख..... अवसाद को सोखने का जज्बा क्या इतना काफ़ी नहीं है एक पेड़ लगाने की वजह सर्वाधिकार - धनेश कोठारी

पहाड़ आवा

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हमरि पर्यटन कि दुकानि खुलिगेन पहाड़ आवा हमरि चा कि दुकान्यों मा ‘तू कप- टी’ बोली जावा पहाड़ आवा हमरा गुमान सिंग रौतेल्लौं डालर. ध्यल्ला, पैसा दे जावा पहाड़ आवा पहाड़ पर घास लौंदी मनख्यणि कु फ़ोटो खैंचि जावा पहाड़ आवा देव धामूं मा द्‍यब्ता हर्चिगेन पांच सितारा जिमी जावा पहाड़ आवा परर्कीति पर बगच्छट्ट ह्‍वेकि कचरा गंदगी फ़ोळी जावा पहाड़ आवा हम लमडि छां बौगि छां रौड़ि छां/ तुम कविलासुं मा घिस्सा- रैड़ि रंगमतु खेलि जावा पहाड़ आवा Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems) Copyright@ Dhanesh Kothari

चुसणा मा.......

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बस्स बोट येक दे ही द्‍या हात ज्वड़्यां खुट्टम् प्वड़दां बक्कै बात हमुन जाणि किलै कि/ भोळ् त चुसणा मा अबि तलक पैटै अथा च हौर बोला हांगु भोरा बांटी चुंटी खै, क्य बुरू तुम जनै नि पौंछी हमरि भौं चुसणा मा रंग्यु स्याळ् आज रज्जा रंगदारा बि त तुम छां चित्तबुझौ ह्‍वां-ह्‍वां त कर्दा तब्बि तुम अधीता/ त चुसणा मा जरनलुं का जुंगा ताड़ा भरोसु इथगा कम त नि च लेप्प रैट आज हमरि भोळ् तुमरि/ गै चुसणा मा पांच सालौ चा त ‘गैर’ हम्मुं पुछा, सैंणा मा हम भाग जोग सबुं अपड़ु उकाळ् चड़दा तुम/ त चुसणा मा ‘बत्ती’ बतुला हमरा ट्वपला लाठी लठैत हमरा झगुला अब चुप!!! अर भौं-भौं बि करिल्या/ त चुसणा मा चीर हात द्रोपदा कु खैंचा ताणि हमुन् जाणिं ग्वालों का छां, ग्वोलौं का छां, हम कृष्ण तुम/ त चुसणा मा Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems) Copyright@ Dhanesh Kothari

लोक - तंत्र

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हे रे लोकतंत्र कख छैं तू अजकाल गौं मा त्‌ प्रधानी कि मोहर वीं कू खसम लगाणु च बिधानसभा मा बिधैक सिर्फ बकलाणु च लोकसभा मा सांसद दिदा तनख्वाह मा बहु-बहु-गुणा चाणु च अर/ लोक तंत्र का थेच्यां भाग थैं कच्याणु च स्यू कख छैं मुक लुकाणू ग्वाया लगाणु धम्म-सन्डैं दिखाणु हे रे लोकतंत्र !!

सोरा

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सोरा भारा कैका ह्वेन जैंन माणिं सि बुसेन कांद लगै उकाळ्‍ चढै़ तब्बि छाळों पर घौ लगैन दिन तौंकु रात अफ्‍वु कु इतगि मा बि मनस्वाग ह्वेन अपड़ा डामि सी मलास्या अधिता मन तब्बि नि भरेन स्याणि मारिन भारा सारिन निसकौं कु तब्बि भारी ह्वेन सम्मु हिटिन बालिस्त नापिक अजाड़ बल नाचि नि जाणि स्याणि टर्कि रस्याण सौंरि बाजिदौं उपरि गणेन Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems) Copyright@ Dhanesh Kothari

बणिगे डाम

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१ बणिगे डाम लगिगे घाम प्वड़िगे डाम मिलिगेन दाम २ सिद्ध विद़द खिद्वा गिद्ध उतरिगेन लांकि मान ३ सैंन्वार खत्म सीढ़ी शुरू उकाळ उंदार घुम कटै ४ जुल्म संघर्ष हर्ष विमर्श समैगे अब समौ ५ स्वाद स्याणि तिलक छींटू पाणि पाणि हे राम ६ ब्याळी आज आज भोळ डुब डुब मिलिगे दाम Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems) Copyright@ Dhanesh Kothari

याद आली टिहरी

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फिल्म समीक्षा याद आली टिहरी          हिमालयन फिल्मस् की गढ़वाली फिल्म ‘याद आली टिहरी’ ऐतिहासिक टिहरी बांध की पृष्‍ठभूमि में विस्थापित ‘लोकजीवन’ के अनसुलझे सवालों की पड़ताल के साथ - साथ बांधों से जुड़े जोखिमों, जरूरतों और औचित्य पर बहस जुटाने की कोशिश निश्‍चित करती है। फिल्म की कहानी दिल्ली में नवम्बर 2005को अखबारों के पहले पन्ने पर टिहरी डुबने की बैनर न्यूज से शुरू होती है। जहां से प्रवासी उद्योगपति राकेश सकलानी डुबते टिहरी की ‘मुखजातरा’ को लौटता है। अट्ठारह वर्ष पहले वह अपनी मां की मौत और प्रेमिका से बिछुड़ने के बाद टिहरी से दिल्ली चला गया था। लौटने पर उसे ‘चौं-छ्वड़ी’ भरती झील में अपने हिस्से (लोक) का इतिहास, भूगोल, संस्कृति, जन-आस्था, विश्‍वास और जैव संपदा डुबती नजर आती है। इसी के बीच खुलती है उसकी यादों की गठरी, झील में तैरते दिखते हैं उसे कई अनुत्तरित प्रश्न, छितरे हुए अपने ‘लोक’ के रिश्ते। मौन स्वरों में सुनाई देते हैं उसे माँ के जरिये विस्थापन से उपजने वाली पीड़ा के कराहते शब्द, प्रेमिका सरिता के साथ बिताये खुशी के पल और बिछड़ने की वजहें। डुबती टिहरी भले ही दुनियावी तमाशब

गैरसैंण की अपील 'सलाण्या स्यळी'

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            अप्रतिम लोककवि, गीतकार अर गायक नरेन्द्र सिंह नेगी कु लेटेस्ट म्यूजिक एलबम ‘सलाण्या स्यळी’ मंनोरंजन का दगड़ ही उत्तराखण्ड राज्य का अनुत्तरित सवालूं अर सांस्कृतिक चिंता थैं सामणि रखदु अर एक संस्कृतिकर्मी का उद्‍देश्यों, जिम्मेदारियों थैं तय कर्न मा अपणि भूमिका निभौण मा कामयाब दिखेंदु। सलाण्या स्यळी मा ईंदां नेगी न जख गीतिका असवाल अर मंजु सुन्दरियाल जन नयि गायिकौं थैं मौका दे, वखि कुछ नया प्रयोग भी बखुबी आजमायां छन। पमपम सोनी कु संगीत संयोजन अब जरुर बोर कर्दु। पहाड़ का सांस्कृतिक धरातल पर गीत-संगीत का कई ‘ठेकेदारुन्’ अब तक खुबसूरत पहाड़ी ‘बाँद’ थैं ऑडियो-विजुअल माध्यमूं मा बदशक्ल सि कर्याली। पण, नरेन्द्र सिंह नेगीन् ‘सलाण्या स्यळी’ का अपणा पैला ही गीत ‘तैं ज्वनि को राजपाट’ मा चुनौती का दगड़ यना करतबूं थैं न सिर्फ हतोत्साहित कर्यूं च, बल्कि प्रतिद्वन्दियों थैं भरपूर मात भी देयिं च। पहाड़ मा जीजा-साली का बीच सदानी ही आत्मीय रिश्ता रैन, त सलाण अर गंगाड़ का बीच का पारस्परिक संबन्धूं मा स्यळी-भिना का रिश्ता स्वस्थ प्रगाढ़ता अर हाजिर जवाबी कु उन्मुक्त छन। एलबम कु शीर्षक गीत ‘स

मार येक खैड़ै

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तिन बोट बि दियाली तिन नेता बि बणैयाली अब तेरि नि सुणदु त मार येक खैड़ै ब्याळी वु हात ज्वड़दु छौ आज ताकतवर ह्वेगे अब त्वै धमकौंणु च त मार येक खैड़ै वेंन ही त बोलि छौ तेरू हळ्ळु गर्ररू ब्वकलु तु निशफिकरां रै अब नि सकदु त मार येक खैड़ै तेरि जातौ छौ थातौ छौ गंगाजल मा वेन सौं घैंट्यै छा अब अगर नातु तोड़दु त मार येक खैड़ै Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems) Copyright@ Dhanesh Kothari

पांसा

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१ रावण धरदा बनि-बनि रुप राम गयां छन भैर चुरेड चुडी पैरौणान सीता देळी मु बैठीं डौर २ अफ्वीं बुलौंदी दुशासनुं द्रौपदा कृष्ण क्य करू अफसोस चौसर चौखाना दुर्योधनूं का सेळ्यूं च पांड्वी जोश ३ टाटपट्टी मा एकलव्य बैठ्यांन द्रोण मास्साब कि जग्वाळ अर्जुन जाणान ईंग्लिश मीडियम वाह रे ज्ञान कि खोज ४ येक टांग मा खडा भस्मासुर शिवजी लुक्यां कविलासुं मोहनी मंथ्यणि रैंप मा हिट्णीं शकुनि खेन्ना छन पासों Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems) Copyright@ Dhanesh Kothari

म्यारा डेरम

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म्यारा डेरम गणेश च चांदरु नि नारेण च पुजदारु नि उरख्याळी च कुटदारु नि जांदरी च पिसदारु नि डौंर थाळी च बजौंदारु नि पुंगड़ा छन बुतदारु नि ओडु च सर्कौंदारु नि गोरु छन पळ्दारु नि मन्खि छन बचळ्दारु नि बाटा छन हिट्दारु नि डांडा छन चड़्दारु नि Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems) Copyright@ Dhanesh Kothari

तेरी आँख्यूं देखी

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पहाड़ का आधुनिक चेहरा है 'तेरी आँख्यूं देखी'          रामा कैसटस् प्रस्तुत ऑडियो-वीडियो ''तेरी आँख्यूं देखी'' से गढ़वाली गीत-संगीत के धरातल पर बहुमुखी प्रतिभा नवोदित संजय पाल और लक्ष्मी पाल ने पहला कदम रखा है। संजय-लक्ष्मी गढ़वाली काव्य संग्रह 'चुंग्टि' के सुप्रसिद्ध रचनाकार स्वर्गीय सुरेन्द्र पाल जी की संतानें हैं। लिहाजा 'तेरी आँख्यूं देखी' को भी पहाड़ के सामाजिक तानेबाने में अक्षुण्ण सांस्कृतिक मूल्यों को जीवंत रखने की कोशिश के तौर पर देखा और सुना जा सकता है। एलबम का एक गीत 'मेरो पहाड़' इसका बेहतरीन उदाहरण है। न्यू रिलीज 'तेरी आँख्यूं देखी' का पहला गीत 'तु लगदी करीना' पहाड़ी 'करीना' से प्रेम की नोकझोंक के जरिये नई छिंवाल को मुग्ध करने के साथ ही 'बाजार' से फायदा पटाने के मसलों से भरपूर है। मनोरम वादियों की लोकेशन पर फैशनपरस्त स्टाइल में सजी इस कृति को अच्छे गीतों की श्रेणी में शामिल किया जा सकता है। हां, पिक्चराईजेशन में नेपाली वीडियोज का असर साफ दिखता है। गढ़वाली संगीत में स्क्रीन पर ऐसे प्रयोग

भैजी !!

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कंप्यूटर पर न खुज्यावा पहाड़ थैं पहाड़ ऐकि देखिल्यावा पहाड़ थैं सुबेर ह्‍वेगे, कविलासूं बटि गुठ्यार तक खगटाणिन्‌ तब्बि दंतुड़ी, बतावा धौं पहाड़ थैं कुम्भ नह्‍येगेन करोंड़ूं, वारु-न्यारु अरबूं कू ह्‍वेगे खिलकौं पर चलकैस नि ऐ, समझावा धौं पहाड़ थैं ब्याळी-आज अर भोळ, आण-जाण त लग्यूं रैंण रौण-बसण कू भरोसू बि, दे द्‍यावा धौं पहाड़ थैं मेरा सट्ट्यों तुम तब ह्‍वेल्या त्‌, जम्मै नि होयांन्‌ जब चौरास मा पसरी, घाम तपदु देखिल्या पहाड़ थैं Copyright@ Dhanesh Kothari

र्स्वग च मेरू पहाड़

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गौं मा पाणि नि पाणि नि त मंगरा नि मंगरा नि त धैन-चैन नि धैन-चैन नि त धाण नि धाण नि त मनखि नि मनखि नि त हौळ्‌ नि हौळ्‌ नि त खेती नि खेती नि त उपज्यरू नि उपज्यरू नि त ज्यूंद रौणौं मतबल...? गौं मा स्कूल नि स्कूल नि त मास्साब नि मास्साब नि त पढ़दारा नि पढ़दारा नि त मिड्डे मील नि मिड्डे मील नि त स्कूल जाणौं मतबल...? गौं मा डाळा नि डाळा नि त बौंण नि बौंण नि त घ्वीड़-काखड़ नि घ्वीड़-काखड़ नि त बाघ नि बाघ नि त जंगळ्‌ बचाणौं मतबल...? गौं मा अगर क्वी च त वू गौं कू प्रधान-प्रधानी च बिधैकौ न्यसड़ू च सांसदौ हौळ च कदाचित हौर क्वी च त वू मौळु च, त्‌ रौणौं मतबल...? तब्बि- मेरू पहाड़ र्स्वग च।

घौर औणू छौं

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उत्तराखण्ड जग्वाळ रै मैं घौर औणू छौं परदेस मा अबारि बि मि त्वे समळौणू छौं दनकी कि ऐगे छौ मि त सुबेर ल्हेक आसरा खुणि रातभर मि डबड्यौणूं छौं र्‌वे बि होलू कब्बि ब्वैळ्‌ मि बुथ्याई तब खुचलि फरैं कि एक निंद कू खुदेणू छौं छमोटों बटि खत्ये जांद छौ कत्ति दां उलार मनखि-मनखि मा मनख्यात ख्वज्यौणू छौं बारा बीसी खार मा कोठार लकदक होंदन्‌ बारा बन्नि टरक्वैस्‌ मा आमदनी पूर्योणू छौं Copyright@ Dhanesh Kothari

हिकमत न छोड़

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थौ बिसौण कू चा उंदारि उंद दौड़ उकाळ उकळं कि तब्बि हिकमत न छोड़ तिन जाणै जा कखि उंड-फंडु चलि जा पण, हौर्यों तैं त्‌ अफ्वू दगड़ न ल्हसोड़ औण-जाण त्‌ रीत बि जीवन बि च औंदारौं कू बाटू जांदरौं कि तर्फ न मोड़ रोज गौळी ह्‍यूं अर रोज बौगी पाणि कुछ यूं कू जमण-थमण कू जंक-जोड़ हैंका ग्वेर ह्‍वेक तेरु क्य फैदू ह्‍वे सकद साला! वे भकलौंदारा थैं छक्वैकि भंजोड़ ॥ कॉपीराइट- धनेश कोठारी 

सुबेर होण ई च

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अन्धेरा तू जाग्यूं रौ, भोळ त सुबेर होण ई च। सेक्की तेरि तब तलक, राज तिन ख्वोण ई च॥ आज हैंसी जा जथा हैंसदें, ठट्टा बि लगैकर तू जुगू बटि पैट्यूं घाम, आखिर वेन्‌ औण ई च॥ माना कि यख तुबैं बि, तेरा धड़्वे बिजां होला तब्बि हमुन्‌ उज्याळा कू, हौळ त लगौण ई च॥ ब्याळी कि तरां आज नि, आजै चार भोळ क्य होलू आज माण चा भोळ, तेरा फजितान्‌ त होण ई च॥ तेरा बुज्यां आंखों मा, चा न दिख्यो कुछ न कत्त हत्त खुट्टौन्‌ जलक-जुपै करि घाम त ख्वौज्यौण ई च॥ निराश ऐ उदास रै तू, जब बि मेरि देळ्‌यी मा बर्सूं का बणबास बाद त, बग्वाळ मनौण ई च॥ कॉपीराइट- धनेश कोठारी 

बिगास

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ब्वै का सौं ब्याळी ही अड़ेथेल छौ मिन् तुमारा गौं खुणि बिगास परसी त ऐ छा मैंमु तुमारा मुल्क का बिधैक ब्लोक का प्रमुख गौं का परधान बिगास कि खातिर ऊंका गैल मा छा सोरा-सरिक द्वी-येक चकड़ैत जण्ण चारे-क लठैत परैमरी का मास्टर जी पैरा चिंणदारा ठेकेदार चाट पूंजि खन्दारा गल्लेदार सिफारिशि फोन बि ऐगे छा लाट साबूं का रोणत्या ह्‍वेक मांगणा छा बिगास सब्बि भरोसू देगेन् मिथैं कमी-शनि बुखणौ कू मेरि बि धरिं छै वे दिनी बटि/ कि आज मि मांगणू छौं बोट भोळ मिन् तुम मंगत्या नि बणै/ त अपड़ि ब्वै कू.........! जा फंडु जा गौं जागणूं होलू तुमतैं बिगास जागणूं होलू तुमारि मवसि कू कॉपीराइट- धनेश कोठारी 

बोली-भाषा

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नवाणैं सि स्याणि छौं गुणदारौं कू गाणि छौं बरखा कि बत्वाणी छौं मंगरौं कू पाणि छौं निसक्का कि ताणि छौं कामकाजि कू धाणि छौं हैंकै लायिं-पैर्यायिं मा अधीत सि टरक्वाणि छौं कोदू, झंगोरु, चैंसू-फाणू टपटपि सि गथ्वाणी छौं हलकर्या सासु का बरड़ाट मा बुथ्योंदारी सि पराणी छौं अद्‍दा-अदुड़ी, सेर-पाथू यूंकै बीचै मांणि छौं बोली छौं मि भाषा छौं अपड़ी ब्वै कि बाणी छौं कॉपीराइट- धनेश कोठारी