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Showing posts from October, 2010

पण कब तलक

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मेरा बिजाल्यां बीज अंगर्ला सार-खार मेरि भम्मकली गोसी कबि मेरु भुक्कि नि जालू कोठार, दबलौं कि टुटलि टक्क पण, कब तलक मेरा जंगळूं का बाघ अपणा बोंण राला मेरा गोठ्यार का गोरु बाखरा उजाड़ जैकि गेड़ बांधी गाळी ल्याला दूद्याळ् थोरी रांभी कि पिताली ज्यू पिजण तक पण, कब तलक मेरा देशूं लखायां फिर बौडिक आला पुंगड़्यों मा मिस्यां डुट्याळ फंड्डु लौटी जाला पिठी कू बिठ्गु मुंड मा कू भारू कम ह्वै जालु कुछ हद तक पण, कब तलक Copyright@ Dhanesh Kothari Photo source- Mera pahad

बाघ

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बाघ   गौं मा     जंगळुं मा मनखि    ढुक्यां छन रात - दिन  डन्ना छन घौर - बौण द्‌वी    लुछणान्‌ एक हैंका से आज - भोळ     अपणा घौरूं मा ज्यूंद रौण कू संघर्ष    आखिर कब तक चाटणा , मौळौणा रौला अपणा घौ      क्य ह्‍वे सकुलु कबि पंचैती फैसला केरधार का वास्ता       या मनख्यात जागली कबि कि पुनर्स्थापित करद्‍यां वे जंगळुं मा    Copyright@ Dhanesh Kothari

बोये जाते हैं बेटे/और उग आती हैं बेटियां

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क्यों अच्छी नहीं लगती बेटी

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बोलना चाहती है औरत

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काव्य आन्दोलनों का युग १९७६- से २०१० तक

सन १९७६ से २०१० तक भारत को कई नए माध्यम मिले और इन माध्यमों ने गढ़वाली कविता को कई तरह से प्रभावित किया। यदि टेलीविजन / ऑडियो वीडियो कैसेट माध्यम ने रामलीला व नाटको के प्रति जनता में रूचि कम की तो साथ ही आम गढ़वाली को ऑडियो व वीडियो माध्यम भी मिला। जिससे गढ़वाली ललित साहित्य को प्रचुर मात्र में प्रमुखता मिली। माध्यमों की दृष्टि से टेलीविजन , ऑडियो , वीडियो , फिल्म व इन्टरनेट जैसे नये माध्यम गढ़वाली साहित्य को उपलब्ध हुए। और सभी माध्यमों ने कविता साहित्य को ही अधिक गति प्रदान की। सामाजिक दृष्टि से भारत में इमरजेंसी , जनता सरकार , अमिताभ बच्चन की व्यक्तिवादी - क्रन्तिकारी छवि , खंडित समाज में व्यक्ति पूजा वृद्धि , समाज द्वारा अनाचार , भ्रष्टाचार को मौन स्वीकृति ; गढ़वालियों द्वारा अंतरजातीय विवाहों को सामाजिक स्वीकृति , प्रवासियों द्वारा प्रवास में ही रहने की ( लाचारियुक्त ?) वृति और गढ़वाल से युवा प्रवासियों की अनिच्छा , कई तरह के मोहभंग , संयुक्त परिवारों का सर्वथा टूटना , प्राचीन सहकारिता व्यवस्था का औचित्य समाप्त होना , ग्रामीण व्यवस्था पर शहरीकरण का छा जाना ; गढ़वालियों द्वारा व

अनसिक्योर्टी

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डाल्यों फरैं अंग्वाळ बोट ताकि, डाल्यों तैं अनसिक्योर्टी फील न हो Copyright@ Dhanesh Kothari

मेरि पुंगड़्यों

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मेरि पुंगड़्यों हौरि धणि अब किछु नि होंद पण, नेता खुब उपजदन्   मेरि पुंगड़्यों बीज बिज्वाड़ खाद पाणि लवर्ति-मंड्वर्ति किछु नि चैंद स्यू नाज पाणि डाळा बुटळा खौड़ कत्यार तक किछु नि होंद पण, नेता खुब उपजदन्   मेरि पुंगड़्यों यू न घामन् फुकेंदन् न पाळान् अळैंदन् न ह्यूंद यूं कु ठिणीं न रूड़्यों यि ठंगरेंदन् बसगाळ, बिजुग्ति बर्खि बि यूंकि चाना नि पुरोंद झाड़-झंक्काड़ हर्याळी का आसार किछु नि दिखेन्दन् पण, नेता खुब उपजदन   Copyright@ Dhanesh Kothari

१९५१ से १९७५ तक

सारे भारत में स्वतंत्रता उपरान्त जो बदलाव आये वही परिवर्तन गढ़वाल व गढ़वाली प्रवासियों में भी आये , स्वतंत्रता का सुख , स्वतंत्रता से विकास , इच्छा में तीव्र वृद्धि , समाज में समाज से अधिक व्यक्तिवाद में वृद्धि , आर्थिक स्थिति व शिक्षा में वृद्धि , राजनेताओं द्वारा प्रपंच वृद्धि आदि इसी समय दिखे गये हैं। गढ़वाल के परिपेक्ष में पलायन में कई गुणा वृद्धि , मन्यार्डरी अर्थव्यवस्था से कई सामजिक परिवर्तन , औरतों का प्रवास में आना , संयुक्त परिवार से व्यक्तिपुरक परिवार को महत्व मिलना , गढ़वालियों द्वारा , सेना में उच्च पद पाना , होटलों में नौकरी से लेकर आईएएस ऑफिसर की पदवी पाना , नौकरीपेशा वालों को अधिक सम्मान , कृषि पर निर्भरता की कमी , कई सामाजिक - धार्मिक कुरुरीतियों में कमी। किन्तु नयी कुरीतियों का जन्म , हेमवती नंदन बहुगुणा का धूमकेतु जैसा पदार्पण या राजनीती में चमकना , गढ़वाल विश्वविद्यालय , आकाशवाणी नजीबाबाद जैसे संस्थानों का खुलना , देहरादून का गढ़वाल कमिश्नरी में सम्मलित किया जाना , १९६९ में कांग्रेस छोड़ उत्तरप्रदेश में संविद सरकार का बनना , फिर संविद सरकार से जनता का मोहभंग होना

इतिहास में एक मील पत्थर

प्रिय मित्रों आप को खुशी होगी कि चिट्ठी पत्री का एक प्रसिद्ध विशेष कविता विशेषांक प्रकाशित होने की इन्तजार में है। चिट्ठी पत्री गढ़वाली भाषा की सम्मानित पत्रिकाओं में शुमार है यह गढ़वाली साहित्य के लिए ऐतिहासिक क्षण है कि एक पत्रिका 150 कविताओं के साथ एकल अंक में ही 123 गढ़वाली भाषा कवियों को कविताओं एक साथ प्रकाशित करने जा रही है। विशेषांक में अलग-अलग भावों, रूपों , शैलियों , मुद्दों प्रतीकों , छवियों से जुड़ी कविताएं शामिल हैं। यह हम सभी के लिए एक गौरवशाली क्षण है। जो लोग इस मुद्दे में रुचि रखते हैं , कृपया संपर्क के लिए कॉल काल करें। श्री मदन डुकलान,  m_duklan@yahoo.com ,  09412993417 बीसी कुकरेती 09702716940 मुम्बई।

१९२५ से १९५० का काल

सामाजिक स्थिति तो वही रही किन्तु स्थितियों में गुणकारक वृद्धि हुई। याने की शिक्षा वृद्धि , उच्च शिक्षा के प्रति प्रबल इच्छा , कृषि पैदावार की जगह धन की अत्यंत आवश्यकता , गढ़वाल से पलायन में वृद्धि , कई सामजिक कुरीतियों व सामजिक ढांचों पर कई तरह के सामाजिक आक्रमण में वृद्धि , सैकड़ों साल से चली आ रही जातिगत व्यवस्था पर प्रहार , स्वतंत्र आन्दोलन में तीव्रता और ग्रामीणों का इसमें अभिनव योगदान , शिक्षा में ब्राह्मणों के एकाधिकार पर प्रबल आघात , नए सामाजिक समीकरणों की उत्पत्ति आदि इस काल की मुख्य सामाजिक प्रवृतियां रही हैं। १९४७ में भारत को स्वतंत्रता मिलना भी इसी काल में हुआ और इस घटना का प्रभाव आने वाली कविताओं पर पड़ा। इस काल में पुरूष वर्ग का नौकरी हेतु गढ़वाली से बाहर रहने से श्रृंगार विरह रस में भी वृद्धि हुई , हिंदी व अंग्रेजी से अति मोह , वास्तुशिल्प में बदलाव , धार्मिक अनुष्ठानो में बदलाव के संकेत , कृषि उपकरणों , कपड़ों में परिवर्तन , गढ़वाली सभ्यता में बाह्य प्रभाव जैसे सामजिक स्थिति इस काल की देन है। प्रवास में गढ़वाली सामाजिक संस्थाएं गढ़वाली साहित्यिक उत्थान में कार्यरत होने लग

१८५० ई. से १९२५ ई. तक

गढवाली में आधुनिक कविताएँ लिखने का आरम्भ ब्रिटिशकाल में ही शुरू हुआ। हाँ १८७५ ई . के बाद प . हरिकृष्ण रुडोला , लीलादत्त कोटनाला एवं महंत हर्षपुरी कि त्रिमूर्ति ने गढवाली आधुनिक कविताओं का श्रीगणेश किया यद्यपि इन्होंने कविता रचना उन्नीसवीं सदी में कर दिया था। इन कविताओं का प्रकाशन ' गढ़वाली ' पत्रिका एवं गढ़वाली का प्रथम कविता संग्रह ' गढवाली कवितावली ' में ही हो सका।  बीसवीं सदी के प्रारम्भिक काल गढ़वाली समाज का एक अति महत्वपूर्ण काल रहा है। ब्रिटिश शासन कि कृपा से ग्रामीणों को शासन के तहत पहली बार शिक्षा ग्रहण का वस्र मिला जो कि गढवाली राजा के शासन में उपलब्ध नहीं था। प्राथमिक स्कूलों के खुलने से ग्रामीण गढ़वाल में शिक्षा के प्रति रूचि पैदा हुई। पैसा आने से व नौकरी के अवसर प्राप्त होने से गढ़वाली गढ़वाल से बहार जाने लगे खासकर सेना में नौकरी करने लगे। पलायन का यह प्राथमिक दौर था। समाज में प्रवासियों और शिक्षितों कि पूछ होने लगी थी एवं समाज में इनकी सुनवाई भी होने लगी थी। समाज एक नये समाज में बदलने को आतुर हो रहा था। धन कि आवश्यकता का महत्व बढने लगा था। व्यापार में अदला

पूर्व - आधुनिक काल

गढवाली साहित्य का आधुनिक काल १८५० ई . से शुरू होता है। किन्तु आधुनिक रूप में कविताएँ पूर्व में भी रची जाती रही हैं। हाँ उनका लेखाजोखा कालग्रसित हो गया है। किन्तु कुछ काव्य का रिकॉर्ड मिलता है। तेरहवीं सदी में रचित काशिराज जयचंद कि कविता का रिकॉर्ड बताता है कि , कविताएँ गढवाल में विद्यमान थीं। डा . हरिदत्त भट्ट ’ शैलेश ’, भजनसिंह सिंह , मोहनलाल बाबुलकर , अबोधबंधु बहुगुणा , चक्रधर बहुगुणा एवं शम्भुप्रसाद बहुगुणा आदि अन्वेषकों ने उन्नीसवीं सदी से पहले उपलब्ध ( रेकॉर्डेड ) साहित्य के बारे में पूर्ण जानकारी दी है। अट्ठारहवीं सदी कि कविता जैसे ' मांगळ ' गोबिंद फुलारी ' घुर्बन्शी ' घोड़ी ' पक्षी संघार ( १७५० ई . से पहले ) जैसी कविताएँ अपने कवित्व पक्ष कि उच्चता और गढवाली जनजीवन कि झलक दर्शाती हैं। गढवाल के महारजा सुदर्शनशाह कृत सभासार ( १८२८ ) यद्यपि ब्रज भाषा में है। किन्तु प्रत्येक कविता का सार गढवाली कविता में है। इसी तरह दुनिया में एकमात्र कवि जिसने पांच भाषाओँ में कविताएँ ( संस्कृत , गढवाली , कुमाउनी , नेपाली और खड़ीबोली ) रचीं और एक अनोखा प्रयोग भी किया कि , दो भ

आधुनिक कविता इतिहास

यद्यपि गढवाली कविता कि समालोचना एवं कवियों कि जीवनवृति लिखने कि शुरुआत पंडित तारादत्त गैरोला ने १९३७ ई . से की किन्तु अबोधबंधु बहुगुणा को गढवाली कविता और गद्य का क्रमगत इतिहास लिखने का श्रेय जाता है। अतः कविता काल कि परिसीमन उन्हीं के अनुसार आज भी हो रही है। इस लेख में भी गढवाली कविता कालखंड बहुगुणा के अनुसार ही विभाजित की जाएगी डा . नन्दकिशोर ढौंडियाल ने कालखंड के स्थान पर नामों को महत्व दिया। जैसे पांथरी युग या सिंह युग। @Bhishma Kukreti

परम्पराओं में निहित लोककल्याण

श्री बदरीनाथ मंदिर के कपाट खुलने और बंद किये जाने की मान्य परम्पराओं के तहत ज्योतिषीय गणनाओं में लोक कल्याण के साथ ही देश, राज्य की भविष्यगत प्रगति व सुख समृद्धि का भी ख्याल रखा जाता है। श्री बदरीनाथ मंदिर के कपाट बंदी की प्रक्रिया में संपादित की जाने वाली ज्योतिषीय गणना के अन्तर्गत मुहूर्त तिथि में ग्रह व नक्षत्रों की पुण्य योगीय उपस्थिति का सर्वथा ध्यान रखे जाने का विधान है। इसके तहत मुहूर्त के लिए ज्योतीष गणना मंे भगवान बदरीनाथ, मुख्य आराधक रावल व देश की राशियों में नियतकाल में मौजुद ग्रह-नक्षत्र की स्थितियों का आंकलन कर पुण्य तिथि का निर्धारण किया जाता है। आंकलन में माना गया है कि, नियतकाल के संपादन में देश, राज्य व लौकिक जगत का कल्याण निहित हो। निर्वह्न की जाने वाली वैदिक रीतियों में भगवान बदरीश की राशि वृश्चिक में सूर्य का संक्रमण होना अनिवार्य है। वहीं दोषरहित नक्षत्रों व ग्रहों की उपस्थिति का भी विशेष महत्व माना गया। है। इस वर्ष दैवीय आपदाओं के कारण राज्य में हुई क्षति और तीर्थस्थलों को पहुंचे नुकसान के दृष्टिगत भी बदरीनाथ मंदिर के कपाटबंदी के मुहूर्तकाल की तिथि निर्धारण

नाथ संप्रदायी साहित्य का प्रभाव

चूँकि गढवाल में नाथ सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव सातवीं सदी से होना शुरू हो गया था और इस साहित्य ने गढ़वाल के जनजीवन में स्थान बनाना शुरू कर दिया था और ग्यारवीं सदी तक यह साहित्य जनजीवन का अभिन्न अंग बन गया था। अथ इस साहित्य के भाषा ने खश जनित गढ़वाली भाषा में परिवर्तन किये। नाथ साहित्य ने खश जनित गढ़वाली भाषा पर शैलीगत एवम शब्द सम्पदा गत प्रभाव डाला किन्तु उसकी आत्मा एवं व्याकरणीय संरचना पर कोई खास प्रभाव ना डाल सकी।   हाँ नाथ सप्रदायी साहित्य ने गढवाली भाषा को खड़ी बोली , बर्ज और राजस्थानी भाषाओँ के निकट लाने में एक उत्प्रेरणा का काम अवश्य किया। यदि गढ़वाल में दरिया वाणी में मन्तर पढ़े जायेंगे तो राजस्थानी भाषा का प्रभाव गढवाली पर आना ही था। जिस तरह कर्मकांड की संस्कृत भाषा ने गढ़वाली भाषा को प्रभावित किया उसी तरह नाथ साहित्य ने गढवाली भाषा को प्रभावित किया। किन्तु यह कहना कि नाथ साहित्य गढवाली कि आदि भाषा है, इतिहास व भाषा के दोनों के साथ अन्याय करना होगा। यदि ऐसा होता तो अन्य लोक साहित्य में भी हमें इसी तरह क़ी भाषा के दर्शन होते।   अबोधबंधु बहुगुणा ने क्योंकर नाथ संप्रदायी का

नाथपंथी साहित्य सन्दर्भ

बगैर नाथपंथी साहित्य सन्दर्भ रहित लेख गढवाली कविता इतिहास नहीं डा. विष्णु दत्त कुकरेती के अनुसार नाथ साहित्य में ढोलसागर , दमौसागर, घटस्थापना , नाद्बुद , चौडियावीर, मसाण , समैण , इंद्रजाल , कामरूप जाप , महाविद्या , नर्सिंग की चौकी , अथ हणमंत , भैर्बावली , नर्सिंग्वाळी , छिद्रवाळी , अन्छरवाळी , सैदवाळी , मोचवाळी , रखवाळी , मैमदा रखवाळी , काली रखवाळी . कलुवा रखवाळी , डैण रखवाळी , ज्यूडतोड़ी रखवाळी , मन्तरवाळी , फोड़ी बयाळी , कुर्माख़टक , गणित प्रकाश , संक्राचारी विधि , दरीयाऊ , ओल्याचार , भौणा बीर , मन्तर गोरील काई , पंचमुखी हनुमान , भैर्वाष्ट्क , दरिया मन्तर , सर्व जादू उक्खेल , सब्दियाँ , आप रक्षा , चुड़ा मन्तर , चुड़ैल का मन्त्र , दक्खण दिसा , लोचडा की वैढाई , गुरु पादिका , श्रीनाथ का सकुलेश , नाथ निघंटु आदि काव्य शास्त्र प्रमुख हैं।   @Bhishma Kukreti 

लोकसाहित्य में मनोविज्ञान एवं दर्शन

नाथपन्थी साहित्य और गढ़वाली लोकसाहित्य में मनोविज्ञान एवम दर्शनशास्त्र नाथपंथी साहित्य आने से गढवाली भाषा में मनोविज्ञान और दर्शनशास्त्र की व्याख्याएं जनजीवन में आया। यह एक विडम्बना ही है की कर्मकांडी ब्राह्मण जिस साहित्य की व्याख्या कर्मकांड के समय करते हैं वह विद्वता की दृष्टि से उथला है, और जो जन साहित्य सारगर्भित है , जिसमें मनोविज्ञान की परिभाषाएं छुपी हैं , जिस साहित्य में भारतीय षट दर्शनशास्त्र का निचोड़ है उसे सदियों से वह सर्वोच्च स्थान नहीं मिला जिसका यह साहित्य हकदार है। नाथपंथी साहित्य के वाचक डळया नाथ या गोस्वामी , ओल्या , जागरी , औजी / दास होते हैं। किन्तु सामजिक स्थिति के हिसाब से इन वाचकों को अछूतों की श्रेणी में रखा गया और आश्चर्य यह भी है की आमजनों को यह साहित्य अधिक भाता था / है और उनके निकट भी रहा है।  @Bhishma Kukreti

गढ़वाली की आदिकाव्य शैली

गढवाली भाषा का आदिकाव्य ( Prilimitive Poetry) बाजूबंद काव्य है जो की दुनिया की किसी भी भाषा कविता क्षेत्र में लघुतम रूप की कविताएँ हैं। ये कविताएँ दो पदों की होती हैं जिसमें प्रथम पद निरर्थक होता है पट मिलाने के निहित प्रयोग होता है द्वितीय चरण सार्थक व सार्ग्वित होता है। गढवाली काव्य की यह अपनी विशेषता लिए विशिष्ठ काव्य शैली है बाजूबंद काव्य अन्य लोक गीतों के प्रकार और कवित्व में भी गढ़वाली भाषा किसी भी बड़ी भाषा के अनुसार वृहद रूप वाली है , सभी प्रकार के छंद , कवित्व शैली गढवाली लोकगीतों में मिलता है।  @Bhishma Kukreti

आधुनिक गढ़वाळी कविता का इतिहास

गढवाली भाषा का प्रारम्भिक काल गढवाली भाषायी इतिहास अन्वेषण हेतु कोई विशेष प्रयत्न नही हुए हैं , अन्वेषणीय वैज्ञानिक आधारों पर कतिपय प्रयत्न डा गुणा नन्द जुयाल , डा गोविन्द चातक , डा . बिहारीलाल जालंधरी , डा . जयंती प्रसाद नौटियाल ने अवश्य किया। किन्तु तदुपरांत पीएचड़ी करने के पश्चात इन सुधिजनो ने अपनी खोजों का विकास नहीं किया और इनके शोध भी थमे रह गये डा. नन्दकिशोर ढौंडियाल व इनके शिष्यों के कतिपय शोध प्रशंसनीय हैं पर इनके शोध में भी क्रमता का नितांत अभाव है . चूँकि भाषा इतिहास में क्षेत्रीय इतिहास , सामाजिक विश्लेषण , भाषा विज्ञान आदि का अथक ज्ञान व अन्वेषण आवश्यक है। अतः इस विषय पर वांछनीय अन्वेषण की अभी भी आवश्यकता है . अन्य विद्वानों में श्री बलदेव प्रसाद नौटियाल , संस्कृत विद्वान् धस्माना , भजनसिंह ’सिंह’ , अबोधबंधु बहुगुणा , मोहनलाल बाबुलकर , रमा प्रसाद घिल्डियाल ' पहाड़ी ', भीष्म कुकरेती आदि के गढवाळी भाषा का इतिहास खोज कार्य वैज्ञानिक कम भावनात्मक अधिक हैं। इन विद्वानो के कार्य में क्रमता और वैज्ञनिक सन्दर्भों का अभाव भी मिलता है . इसके अतिरिक्त सभी विद्वानो के अन्व

समौ

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चंदरु दिल्ली बिटि घौर जाणों तय्यार छौ , अर वेका गैल मा छौ तय्यार ’ झबरु ’ । झबरु उमेद कु पाळ्यूं कुत्ता छौ। पाल्ळं से लेकि कुछ दिन पैलि तक उमेद अर वेकी स्वेण थैं झबरु से भारी आस छै। लेकिन अजकाल द्वी बड़ा परेशान छा। ठीक इन बग्त चंदरु दिल्ली काम से पौंछी। माना कि , उमेदा कु द्‍यब्ता दैणूं ह्‍वेगे हो। हलांकि दिल्ली कि लाइफ़ मा चंदरु कि द्वी चार दिनै कि खातिरदारी मा ही उमेदा थैं असंद औंण लगि छै। पण , यख त मोल हर चीज कू च। स्यू उमेदा का घौर रयां कु कर्ज चंदरु परैं बि ह्‍वे। ये ऐसान का बदला ही चंदरु झबरु सणिं घौर लिजाण कू राजी ह्‍वे। उमेदन् बोली खुब बोलि ब्यट्टा तिन चंदरु कि बात बीच मा ही काटिक उमेदन् बोलि ज्यूंद रौ म्यरा लाटा अफ्वू उमेद बर्सूं बिटि घौर नि गै छौ। ब्वै आज बि यकुलासी का दिन छै काटणीं च घौर मु। उमेद कु ध्यान ब्वै परैं वन्न त कबि नि जागी। पण , आज उमेद थैं ब्वै का यकुलास कि भारी चिंता ह्‍वईं छै। घैर मु ब्वै क दगड़ रिश्ता कि तरां दिल्ली कि मैंगै मा झबरु बि भारी प्वड़न लगि छौ। तन्न बि यूं शैरूं कु रिवाज च कि , बिगर आमदनी का त शैद ही क्वी मनख्यात बि कैमा जोड़ू। स्यू चंदर